वक्त तुम नदी हो?

लेखन सामान्यतः दो तरह से किया जाता है। पहला -आपके अन्दर कोई विचार अनायास कौंधे और आप कलम उठाने के लिए मजबूर हो जाएं। दूसरा - बीज कोई और दे। उस बीज की प्रकृति के अनुरूप आप उसे अपनी मेघा या मन में बो दें। फिर धीरे-धीरे वह पुष्पित- पल्लवित होने लगे और आप उसे काग़ज़ पर उतार दें। मुझे भी एक विषय मिला 'वक्त'। विषय के अनुरूप मैंने इसे मेधा में रोपित किया और आज काग़ज़ पर उतार रहा हूं। वक्त क्या है? शायद एक‌ प्रवाह। जिस तरह इस ब्रह्माण्ड का आदि अंत नहीं है वह अभी भी विस्तार पा रहा है ठीक उसी तरह वक्त भी मात्र प्रवाह है। हम अपनी सुविधानुसार उसे ठहरा हुआ वक्त,बीता हुआ वक्त, खुशी का वक्त,गम का वक्त, जज्बातों का वक्त आदि आदि नाम दे देते हैं। यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो जो प्रवाह है वह खण्ड- खण्ड हो ही नहीं सकता। यह तो वैसा ही हुआ जैसे हम नदी के पानी को विभिन्न पात्रों में भरकर कहें ,बाल्टी का पानी,गिलास का पानी,बोतल का पानी।हम अपने द्वारा अपनाई गई सीमाओं का आरोप जल पर कर रहे हैं। वक्त बस वक्त है वह न खुशी का होता‌ न दुख का,न ठहरता,न उसके जज़्बात होते हैं। उसका कोई भूत ,भविष्य, वर्तमान नहीं होता। मनुष्य अपनी मन: स्थिति, परिवेश को वक्त पर आरोपित करके उसे खण्ड-खण्ड करने का प्रयास करता है। हमारी अपनी सीमाएं हैं वक्त की नहीं। जब इस धरती पर मनुष्य नहीं था तब भी वक्त था। आपके होने न होने,हंसने-गाने, चीखने -चिल्लाने आदि का कोई प्रभाव वक्त पर पड़ता ही नही‌ं।हम हैं वक्त को बनाने संवारने में लगे हुए हैं। यह कितना बड़ा दम्भ है। हम संवार खुद को रहे हैं और कहते हैं वक्त को संवार रहे हैं। उचित परिश्रम‌ न करने के कारण जब असफलता हाथ लगती है तो आरोपित कर देते हैं कि वक्त खराब है। यह सारी प्रकृति क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप गतिशील है। जड़,जंगम,चेतन जो कुछ भी उपलब्ध है वह सब स्वयम् में ब्रह्म ही है और वहीं ब्रह्म अपने जैसा सृजित करके सृष्टि को गति प्रदान कर रहा है। वक्त और‌ ब्रह्मांड दोनों अन्योन्याश्रित हैं, इन पर अपनी भावनाओं और मन:स्थिति को आरोपित करके उसे खण्ड-खण्ड करने का मतलब है कि हम अपनी लघुकथा का ही परिचय दे रहे हैं। डॉ प्रेमकुमार पाण्डेय
केन्द्रीय विद्यालय वेंकटगिरि आंध्रप्रदेश

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