'हेलो' - ए स्ट्रीट डॉग....

आज इतने सालों के बाद 'हेलो' का जिक्र करते हुए दिल भारी है। आपसे ये कहना चाहूंगा कि अगर कोई 'हेलो' मिले तो उसे खोना मत क्योंकि ये मूक जानवर सिर्फ बोलते नहीं हैं बाकी सब जानते समझते हैं। जिस 'हेलो' का जिक्र मैं कर रहा हूँ वो एक सफेद रंग का, घुंघराले बालों वाला एक शानदार कुत्ता था। हीरे सी चमकती आँखें और मासूम सा वो चेहरा जिसपर किसी को भी प्यार आ जाए। हमारे यहाँ एक बड़ा सा बाजार है, जो गौरीपुर मारकेट के नाम से जाना जाता हैं। उसी बाजार के एक छोर पर एक मछली पट्टी है जहाँ कई बिल्ली और कुत्ते रहते हैं। मैं कक्षा 8वीं में पढ़ता था। रोज सुबह 7 बजे कोचिंग सेंटर पढ़ने जाया करता था। मैं उसी मारकेट से होकर कोंचिग जाता था। 'हेलो' उसी मारकेट का रहने वाला था। एक दिन जब मैं और मेरी बहन कोचिंग जा रहे थे तो वो छोटा सा कुत्ते का बच्चा दौड़ते हुए मेरे पीछे पीछे आने लगा, मैंने मुड़कर उसे स्पर्श करना चाहा तो वो भाग खड़ा हुआ। उसको देखकर मैंने तय किया कि इसे चुराकर ले जाउंगा। कुत्तों का मैं बहुत पहले से लालची रहा हूँ। कहीं भी प्यारा सा पिल्ला दिखता तो मैं उसे उठाकर घर ले आता। लेकिन फिर माँ से फटकार पड़ती थी और पिल्लों को वापस उसके माँ के पास छोड़ कर आता था। एक बार कहीं से मैं बिल्ली का बच्चा उठा लाया। रात को अच्छा भला दूध पिला कर, उसको ईंटों का घर बनाकर उसमे सुला दिया पर कमबख्त सुबह होते ही न जाने कहाँ गायब हो गयी। अगले दिन जांच-पड़ताल करने पर पता चला कि रात को ही उसकी माँ उसको उठाकर ले गयी। अब सोचता हूँ कितनी महान है एक माँ की ममता, किसी दूसरी माँ से कम न रही होगी। इस घटना पर हम तीनों भाई-बहन बहुत दुखी थे। जो दुखी नहीं थी वो थी हमारी माँ। माँ को कुत्ते-बिल्ली पालना पसंद नहीं था। “गंदगी" उसकी पहली वजह थी। माँ पूजा-पाठ करने वाली औरत है अतः गंदगी फैलाने वाले इंसान और जानवर उसको पसंद नहीं है। लेकिन इसके ठीक उलट हमारे पिता जी, जिन्होने कभी इसके लिए मना नहीं किया।
तो हुआ यूँ कि मैं उसे पिल्ले को उठाकर घर ले आया। मंगलवार का दिन था और उस दिन मारकेट बंद रहती है। लाते ही बरामदे में रखा, दुध और रोटी खिलाई। फिर वो खाकर सो गया। गैंग में अब तक मेरे भाई- बहन भी शामिल हो चुके थे। कैसे भी करके हमने पिता जी को मना लिया। अब हमारे पास पिताजी का सर्मथन था और कुल मिलाकर गठबंधन की सरकार थी अतः माँ भी मना नहीं कर पायी लेकिन गुस्से में थी । आप सोच रहे होंगे कि उसको 'हेलो' नाम क्यों मिला.....? हेलो नाम उसका यूँ पड़ा, जब भी हम उसके पास जाते और हैलो बोलकर हाथ आगे बढ़ाते तो वो अपना नन्हा पंजा हमारी हथेली पर रख देता। बार-बार 'हेलो' सुन-सुन कर वो इस शब्द का अभ्यस्त हो गया और इसे सुनते ही कान खड़े कर लेता। उसको भी लगले लगा कि ये शब्द उसके लिए ही बोले जा रहे हैं। जोर-जोर से 'हेलो' की तैयारियाँ शुरू हो गयीं। दुध का कटोरा, सोने के लिए छोटा बिछौना आदि। 1-2 सालों में ही वो पूरी तरह से बड़ा हो गया और हमारी घर की रखवाली करने लगा। चंद महीनों में ही उसने सबका दिल जीत लिया। कभी पैरों पर लोट जाता कभी उसपर कूद कर चढ़ जाता। माँ के साथ-साथ छत पर जाता कपड़े सुखाने । अबतक मेरी माँ को भी उससे लगाव हो गया था। लेकिन फिर उसकी जिंदगी में एक निर्णायक साल आया। उसे कोई अज्ञात सी बीमारी हो गयी। उसने खाना-पीना सब बंद कर दिया। पिताजी जानवर के एक डॉक्टर को भी पकड़ लाए लेकिन वो भी बीमारी का पता न लगा पाया। वो इतना कमजोर हो गया कि चल भी नहीं पा रहा था। न उठ पाता, न आँखे खोलता । एक समय ऐसा आया कि लगा अब 'हेलो' नहीं बचेगा। मार्च का महीना था, उसने अपनी सारी हरकते बंद कर दी, शायद वो मर चुक लेकिन साँसे अभी भी अटकी हुई थी। उसकी ये हालत कोई नहीं देख पा रहा था। उस रात माँ ने उसके लगभग मृत मुख में गंगाजल ढ़ाला और प्रार्थना की या तो उसको जीवन दान दो या उसे कष्ट से मुक्त करो। अगले दिन सुबह जब हम 'हेलो' के पास गए तो वो हमे छोड़ कर जा चुका था। उसके मृत्यु पर मेरे पिताजी के भी आँसू छलक उठे। हमने मोहल्ले से दूर नदी के किनारे जाकर उसके मृत शरीर, दूध का कटोरा और बिछौने को दफन किया। कई दिनों तक मैंने खाना नहीं खाया। रात को उठता तो ऐसा लगता कि हेलो बरामदे में सो रहा है। कुछ समय के बाद मेरा बालमन जीवन के खेल में फिर से मशगुल हो गया। लेकिन मेरा कुत्ते पालने का शौक जाता रहा। पर एक नाम हेलो जो आज भी ज़हन में जिन्दा है और पासवर्ड का हिस्सा बना हुआ है।मैंने आज उस जानवर के बारे में लिखा जिसके बारे में कोई बात नहीं करता। ये जानवर ही फरिस्तें होते हैं जो बदले में आपसे कुछ नहीं मांगते । वरना आज तो कई लोग ऐसे हैं जो जानवर के गर्दन पर हाथ फेरने की जगह छूरा फेरने को ही ईस्वरीय आदेश समझते हैं
अश्वनी कुमार गुप्ता
राजभाषा अधिकारी,केनरा बैंक

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