ज्ञानवापी का परिचय

ज्ञानवापी का परिचय अगस्त्य जी बोले- स्कन्द, अब आप ज्ञानोद या ज्ञानवापी तीर्थ का महात्म्य बतलाइए। कार्तिकेय जी ने कहा- अगस्त्य जी, यह काशी दीर्घ महानिद्रा अर्थात् मृतक जीवों को ज्ञान मोक्ष देनेवाला है। एक बार ईशान कोण के अधिपति ईशान नाम वाले रुद्र घूमते हुए काशी आये। वहॉ उन्होंने भगवान शिव के विशाल ज्योतिर्लिंग का दर्शन किया जिसके चारों ओर प्रकाश पुंज व्याप्त था। ईशान के मन में शीतल जल से महालिंग को स्नान कराने का भाव पैदा हुआ। स्नान के लिए जल प्राप्त करने के लिए इन्होंने विश्वेश्वर लिंग के दक्षिण में त्रिशूल चलाकर कुण्ड खोदा। ईशान ने उस कुण्ड से जल लेकर ज्योतिर्मय लिंग को स्नान कराया। वह जल सन्त महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ, भगवान शिव के नाम जैसा पवित्र, अमृत के समान स्वादिष्ट, पापहीन व अगाध था। ईशान ने उस जल से सहस्र धारा वाले कलशों से विश्वनाथ जी को सहस्र बार स्नान कराया। जिससे भगवान शिव प्रसन्न होकर बोले- ईशान, मैं तुम्हारे इस महान काम से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, तुम कोई वर माँगों। ईशान बोले- देवेश, यदि आप प्रसन्न हैं तो यह अनुपम तीर्थ आपके नाम से प्रसिद्ध हो। विश्वनाथ बोले- त्रिलोक के सभी तीर्थों में यह परम श्रेष्ठ होगा। शिव ज्ञान को कहते है, वही ज्ञान मेरी महिमा के उदय से इस कुण्ड में द्रव रूप में प्रकट हुआ है। अतः इसे ज्ञानोद (ज्ञानवापी) के नाम से प्रसिद्ध होगा। इसके स्पर्श मात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होगा और आचमन से राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का फल मिलता है। फल्गूतीर्थ (गया) में स्नान और पितरों का तर्पण करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल ज्ञानवापी के समीप श्राद्ध करने से प्राप्त होता है। इस प्रकार वरदान देकर भगवान शिव अन्तर्धान हो गये। प्राचीन काल में काशी में हरिस्वामी नाम के विख्यात ब्राह्मण रहते थे। उनके एक सुशीला नाम की सुन्दर कन्या थी, जो सोलह कलाओं में निपुण व शील और सदाचार में सर्वश्रेष्ठ थी। एक दिन जब वह अपने घर में सो रही थी, किसी विद्याधर ने उसके रूप पर मोहित होकर उसका अपहरण कर लिया। वह रात में आकाश मार्ग से कन्या को मलय पर्वत पर ले जाना चाहता था। इतने में वहाँ विद्युन्माली नाम का राक्षस आया और बोला- विद्याधर, मैंने तुम्हें देख लिया है, इस मानव कन्या के साथ मैं तुम्हें यमपुर भेज देता हूँ। राक्षस ने विद्याधर पर त्रिशूल से प्रहार किया। विद्याधर भी शक्तिशाली था, उसने वज्र के समान मुक्के से राक्षस को मारा। जिससे राक्षस पृथ्वी पर गिरकर मर गया। त्रिशूल के घातक प्रहार के कारण विद्याधर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। सुशीला ने विद्याधर को ही अपना पति मानकर शोक से अपने शरीर को भस्म कर दिया। विद्याधर मृत्यु के समय अपनी प्रियतमा के याद करते हुए प्राण त्यागे थे, जिससे वह मलयकेतु के यहाँ माल्यकेतु के रूप में जन्म लेता है। सुशीला भी कर्नाटक में कलावती के रूम में जन्म लेती है। उचित समय पर उसके पिता उसका विवाह मलयकेतु के पुत्र से कर देता है। कलावती भगवान शिव की पूजा कर माल्यकेतु को पति रूप में पाकर दिव्य भोग व वैभव को पाती है। उसके तीन सन्तानें पैदा हुईं। एक दिन कोई उत्तर भारत का चित्रकार राजा माल्यकेतु के यहाँ आया और एक विचित्र चित्र दिखाया। राजा उस चित्र को लेकर कलावती को दे दिया। चित्र को देखते ही कलावती के शरीर में रोमांच हो आया और वह भगवान शिव को बार-बार याद करने लगी। कुछ देर बाद उसने देखा कि उस चित्र में लोलार्क कुण्ड के समीप और उसके आगे असी और गंगा का संगम है तथा उत्तर में भगवान के चरणों से वरुणा नदी बह रही है। उत्तर वाहिनी गंगा के तट पर मणिकर्णिका तीर्थ है जो साधु पुरुषों को मोक्ष देता है। भैरव के हाथ से कपाल गिरने के कारण यहाँ कपालमोचन तीर्थ है जो तीनों प्रकार के ऋणों से मुक्त करने वाला है। कलावती ने चित्र में स्वर्गद्वार के आगे श्रीमणिकर्णिका तीर्थ को देखा, जहॉ भगवान शिव जीवों के दाहिने कान में तारक ब्रह्म का उपदेश देते हैं। उसने भगवान विश्वनाथ के दाहिने भाग में ज्ञानवापी को देखा। ज्ञानवापी का दर्शन कर कलावती का शरीर काँपने लगा। उसके माथे पर पसीना आ गया, उसने आँख बन्दकर भगवान शिव का स्मरण किया। उसे अपने पिछले जन्म का ज्ञान हुआ। कलावती ने महाराज से कहा- आर्यपुत्र, मुझे शीघ्र काशी ले चलिए। माल्यकेतु अपने पुत्र को राज सिंहासन पर बिठाकर रानी के साथ काशी को प्रस्थान करते है। विश्वनाथ जी की नगरी को देखकर राजा कृतार्थ होता है और अपने जन्म को सार्थक मानता है। उसे भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आता है। गंगा जी में स्नान कर श्रद्धापूर्वक पिण्डदान कर दान पुण्य किया। एक दिन वे दोनों ज्ञानवापी में स्नान कर बैठे हुए थे। तभी कोई जटाधारी व्यक्ति इन्हें विभूति देकर कहता है- उठो, आज एक ही क्षण में तुम दोनों को तारक मन्त्र का उपदेश मिलेगा। इतना कहते ही आकाश से एक विमान उतरा और उस विमान से शिव जी निकले, उन्होंने ही पति-पत्नी को कानों में ज्ञान का उपदेश दिया। उपदेश के बाद महादेव जी अपने परम धाम को चले गये।

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