मुख्यमंत्री ने पुस्तक ‘नाथपंथ का इतिहास’, ‘नाथपंथ की प्रवेशिका’ तथा गोरक्षनाथ शोध पीठ की अर्द्धवार्षिक पत्रिका ‘कुण्डलिनी’ का विमोचन किया
नाथपंथ में श्रवण और भ्रमण, दोनों ही परम्पराएं समाहित हैं-प्रो0 त्रिपाठी
लखनऊ: 14 सितम्बर, 2024
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी ने हिन्दी दिवस की बधाई देते हुए कहा कि हिन्दी देश को जोड़ने वाली एक व्यावहारिक भाषा है। देश की बहुसंख्यक आबादी राजभाषा हिन्दी को जानती, पहचानती और समझती है। हिन्दी का मूल देववाणी संस्कृत से है। दुनिया की जितनी भी भाषाएं और बोलियां हैं, उनके स्रोत देववाणी संस्कृत से जुड़ते है। विगत 10 वर्षों में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार ने देश को जोड़ने के लिए एक व्यावहारिक भाषा के रूप में हिन्दी को देश और दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है। यह अत्यन्त अभिनंदनीय कार्य है।
मुख्यमंत्री जी आज दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर में ‘समरस समाज के निर्माण में नाथपंथ का अवदान’ विषय पर आयोजित 02 दिवसीय अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन के अवसर पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने डाॅ0 पद्मजा सिंह की पुस्तक ‘नाथपंथ का इतिहास’, श्री अरुण कुमार त्रिपाठी की पुस्तक ‘नाथपंथ की प्रवेशिका’ तथा गोरक्षनाथ शोध पीठ की अर्द्धवार्षिक पत्रिका ‘कुण्डलिनी’ का विमोचन किया। मुख्यमंत्री जी ने विश्वविद्यालय परिसर में दिव्यांगजन द्वारा संचालित कैण्टीन का शुभारम्भ किया। उन्होंने सभी को हिन्दी दिवस की बधाई दी। उन्होंने महायोगी गुरु गोरखनाथ शोधपीठ, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय और भाषा विभाग के अन्तर्गत हिन्दुस्तानी एकेडमी, प्रयागराज को अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए बधाई दी।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आज की यह संगोष्ठी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने निज भाषा के विषय में कहा था कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’ अगर हमारे भाव और हमारी भाषा स्वयं की नहीं है, तो हमारी प्रगति हर स्तर पर बाधित होगी। इस बाधा को हटाने के लिए देश में आजादी के आन्दोलन से लेकर उसके बाद हिन्दी की उन्नति के लिए विभिन्न कार्य किये गये। इस दिशा में नए प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। विभिन्न संस्थाओं को मिलकर इस अभियान को पूरी प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आज मेडिकल और इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम भी हिन्दी में संचालित किये जा रहे हैं। इस दिशा में लोगों के मन में एक भाव उत्पन्न हुआ है। पहले दुनिया के राजनयिकों से अंग्रेजी या उनकी भाषा में संवाद बनाया जाता था। आज जब विभिन्न देशों के राजनयिक हमारे देश में आते हैं, तो वह हिन्दी के माध्यम से हमसे संवाद बनाना चाहते हैं। यह हम सभी को एक नए भारत का दर्शन कराता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि भारत के संतों की परम्परा सदैव जोड़ने की रही है। प्राचीन काल से ही भारत की ऋषि परम्परा ने समतामूलक समाज को महत्व दिया है। केरल में जन्मे एक संन्यासी आदिशंकर ने भारत के चार कोनों में चार पीठों की स्थापना की। जब आचार्य शंकर अपने अद्वैत ज्ञान से परिपूर्ण होकर आगे की साधना के लिए काशी आए, तो साक्षात भगवान विश्वनाथ ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। प्रातःकाल जब आदिशंकर गंगा स्नान के लिए जाते हैं, तो सबसे अछूत कहे जाने वाले चाण्डाल के रूप में भगवान शंकर उनके मार्ग मंे खड़े हो जाते हैं। आदिशंकर चाण्डाल से अपने मार्ग से हटने के लिए कहते हैं। चाण्डाल आदिशंकर से कहते हैं कि आप स्वयं को अद्वैत ज्ञान का मर्मज्ञ मानते हैं। आप किसको हटाना चाहते हैं। आपका ज्ञान क्या इस भौतिक काया को देख रहा है या इसके अन्दर बसे हुए ब्रह्म को देख रहा है। अगर ब्रह्म सत्य है, तो जो ब्रह्म आपके अन्दर है, वही ब्रह्म मेरे अंदर भी है। इस ब्रह्मसत्य को जानकर यदि आप इसे ठुकरा रहे हैं, तो आपका ज्ञान सत्य नहीं है।
आदिशंकर एक चाण्डाल से ऐसी बात सुनकर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने चाण्डाल से पूछा कि आप कौन हैं। तब चाण्डाल ने उत्तर दिया कि जिस ज्ञानवापी की साधना के लिए आदिशंकर केरल से काशी आए हैं, वह इसका साक्षात स्वरूप विश्वनाथ हैं। आदिशंकर भगवान शिव के समक्ष नतमस्तक होते हैं। उन्हें यह ज्ञान भी होता है कि भौतिक अस्पृश्यता साधना के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। यह राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की भी सबसे बड़ी बाधा है। यदि इस बाधा को हमारे समाज ने समझा होता, तो यह देश कभी भी गुलाम नहीं होता।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि भारत की संत परम्परा ने कभी भी छुआछूत और अस्पृश्यता को महत्व नहीं दिया। उन्होंने हमेशा समरस समाज पर जोर दिया है। संत रामानन्द ने भारत की उपासना विधि की एक विशिष्ट पद्धति को आगे बढ़ाया। उन्होंने भी छुआछूत और अस्पृश्यता को महत्व नहीं दिया। उनका जोर उस समय के समाज को जोड़ने पर था। संत रविदास और संत कबीर उनके शिष्य बने।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि गुरु गोरखनाथ जी की नाथ परम्परा ने जाति, मत, मजहब, क्षेत्र तथा भाषा का कभी भी अनादर नहीं किया, बल्कि सभी को सम्मान दिया और सभी को जोड़ने का प्रयास किया। यह आध्यात्मिक के साथ ही व्यावहारिक उपासना पद्धति है। इसने एक और काया की शुद्धि पर ध्यान दिया और उसके माध्यम से आध्यात्मिक उन्नयन का मार्ग प्रशस्त किया। दूसरी ओर समरस समाज के माध्यम से प्रत्येक तबके को अपने साथ जोड़ने का काम भी किया। समाज को जोड़ने, उसे आध्यात्मिक उन्नयन प्रदान करने एवम राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए गुरु गोरखनाथ द्वारा रचे गए सबद, दोहे एवं पद आदि हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि गुरु गोरखनाथ के सामाजिक अवदान का उल्लेख मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने ग्रंथ पद्मावत में किया है। अपनी रचना पद्मावत में मलिक मोहम्मद जायसी ने कहा कि ‘बिनु गुरु पंथ न पाइए, भूलै से जो भेंट। जोगी सिद्ध होई तब, जब गोरख सौं भेंट।’ संत कबीर ने कबीर ग्रंथावली में गुरु गोरखनाथ की योग पद्धति के बारे में कहा कि ‘गोरख सोई ग्यान गमि गहै, महादेव सोई मन को लहै। सिद्ध सोई जो साधै ईती, नाथ सोई जो त्रिभुवन जती।’ संत तुलसीदास इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि ‘गोरख जगायो जोगू, भगति भगायो लोगू।’ उन्होंने कहा कि सम्पूर्ण संत साहित्य परम्परा में महायोगी गोरखनाथ की परम्परा का दर्शन होता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि हिन्दी साहित्य की परम्परा संत साहित्य से आगे बढ़ती है। संत साहित्य की आधारशिला महायोगी गुरु गोरखनाथ का साहित्य है। इस पर शोध और ऐसे कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। गुरु गोरखनाथ जी के सबद और पद का संकलन हिन्दी साहित्य के विद्वान डॉ0 पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने ‘गोरख बानी’ के रूप में किया है। उन्हें इसके लिए हिन्दी की पहली डि0लिट की उपाधि भी प्राप्त हुई है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आज हिन्दी दिवस के अवसर पर इस संगोष्ठी में साहित्यकारों एवं विद्वानांे को आमंत्रित करना बेहद सुखदायी है। इस संगोष्ठी में आज के समय के प्रासंगिक विषयांे पर चर्चा होगी, जो अत्यन्त लाभकारी होगी। इस संगोष्ठी में विभिन्न सत्रों में नाथसिद्ध परम्परा व नाथपंथ की सामाजिक समरसता एवं साधना पर भी चर्चा की जाएगी। विगत दिनों उन्हें अयोध्या में रामेश्वरम से आए हुए एक संत ने तमिलनाडु के सुदूर किनारे पर गुरु गोरखनाथ से जुड़े स्थलों के बारे में प्राचीन साहित्य की पाण्डुलिपियां उपलब्ध कराई थी। गुरु गोरखनाथ जी से जुड़े सैकड़ो वर्ष पुराने स्थल वहां आज भी मौजूद है। कर्नाटक में मंजूनाथ का बहुत महत्व है। वहां की परंपरा कहती है कि मंजुनाथो हि गोरक्षं। गोरखनाथ जी वहां पर मंजूनाथ के रूप में प्रतिष्ठित हैं महाराष्ट्र की परम्परा में संत ज्ञानेश्वर से वारकरी सम्प्रदाय का प्रारम्भ होता है। उन्होंने मात्र 16 वर्ष की उम्र में गीता पर टीका लिखी थी। 21 वर्ष की उम्र में उस संत ने सजीव समाधि ले ली थी। उसमें संत ज्ञानेश्वर ने यह उल्लेख किया था कि उन्हें गुरु मत्स्येंद्र नाथ, गुरु गोरखनाथ एवं निवृत्ति नाथ की परम्परा से ज्ञान प्राप्त हुआ है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि जिस प्रकार हमारे यहां श्रीरामचरितमानस का पाठ होता है, उसी प्रकार महाराष्ट्र में नौ नाथों की परम्परा का पाठ देखने को मिलता है। त्रिपुरा, असम, बंगाल सहित अलग-अलग राज्यों में नाथ परम्परा से जुड़ी अलग-अलग बातें देखने को मिलती हैं। यह दर्शाता है कि नाथपंथ का विस्तार वृहत्तर भारत में है। स्थानीय लोकोक्तियों, लोकाचार और परम्पराओं में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। भारत में साधना के लिए सबसे अनुकूल भूमि के विषय में गुरु गोरखनाथ जी ने अपनी गोरखवाणी में इस बात उल्लेख किया है कि देश में सिद्धि के साधन के लिए सबसे उपयुक्त भूमि कौन सी है-‘अवधू पूरब दिसि ब्याधि का रोग, पछिम दिसि मिर्तु का सोग। दक्षिण दिसि माया का भोग, उत्तर दिसि सिध का जोगा।’ इससे हमें भारत की भौगोलिक स्थिति के बारे में भी पता चलता है।
योग साधना के लिए आवश्यक तत्वों के विषय में भी गुरु गोरखनाथ ने बताया है। महर्षि पतंजलि ने अपने दर्शन में अष्टांग योग की बात की है। यम और नियम के बारे में गुरु गोरखनाथ कहते हैं कि यह अंतःकरण और वाह्य रूप से शुद्धि के माध्यम है। मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी तभी है, जब वह आन्तरिक और वाह्य शुद्धि दोनों पर ध्यान दें। शुद्धि के बिना मनुष्य और पशु में अंतर करना बहुत कठिन है। गोरखनाथ जी ने कायाशुद्धि की एक विशिष्ट पद्धति को भी इसके साथ महत्व दिया है। इसे उन्होंने बाद में हठयोग में परिवर्तित करके प्राणों की साधना के रूप में सामान्य जनमानस के लिए अत्यन्त उपयोगी बनाया। यह किसी भी जाति, मत, मजहब के प्रत्येक उम्र के व्यक्ति के लिए उच्च कोटि की साधना प्राप्त करने का माध्यम बन सकता है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि अक्सर व्यक्ति की अनियमित दिनचर्या उसके स्वास्थ्य पर विपरीत असर डालती है। गोरखवाणी में गुरु गोरखनाथ ने उल्लेख किया है कि ‘थोड़ा बोलै थोड़ा खाई, तिस घटि पवनां रह समाई। गगन मंडल में अनहद बाजै, प्यंड पड़ै तो सतगुरु लाजै।’ अर्थात थोड़ा बोलिए, थोड़ा खाइए। ज्यादा खाने से ऐसा ना हो जाए कि हम सांस ही न ले पाए। नियमित दिनचर्या व्यक्ति के जीवन को नई दिशा दे सकती है, इसका उल्लेख गोरखनाथ जी ने सबद और पद में किया है। आज यह परम्पराएं लुप्तप्राय सी हैं।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि एक समय देश में बाहरी आक्रमण होने शुरू हो गए थे। उस समय बटी हुई ताकत और विभाजित समाज उसका मुकाबला करने में असमर्थ थे। पंजाब और सिंध की परम्परा में यह मान्यता है कि इन हमलों को रोकने के लिए उस समय गोरखनाथ जी ने समाज को जागरूक करने हेतु सारंगी वादन और गायन के बड़े उपक्रम का उपयोग किया था। उस समय एक संत और योगी देश को उन वाह्य खतरों से अवगत करा रहा था, जो यहां की परम्परा और संस्कृति को रौंदने के लिए आए थे। वह लोगों को एकजुट रहने का आह्वान भी कर रहे थे।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि एक योगी स्वस्थ शरीर हेतु काया शुद्ध करने एवं उसके माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त करने तथा सामाजिक रुढ़ियों पर प्रहार करने के साथ स्थानीय भाषा को भी सम्मान देता है। गुरु गोरखनाथ ने स्थानीय भाषा को महत्व देने जैसे समाज के लिए उपयोगी कार्य भी किए। कोई भी भाषा गलत नहीं होती। एक भाषा सभी को जोड़ने का माध्यम हो सकती है, लेकिन स्थानीय बोली एवं भाषा को महत्व देना चाहिए। जहां भी स्थानीय बोली व स्थानीय भाषा का महत्व देने का कार्य हुआ है, उसे समाज का समर्थन मिला है तथा प्रकृति और परमात्मा का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि जब संत तुलसीदास को रामायण पर एक ग्रंथ लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई, तो उन्होंने संस्कृत में अपने श्लोक लिखने प्रारम्भ किए। वह जितना लिखते थे, बाद में गायब हो जाते थे। कहा जाता है कि साक्षात हनुमान जी ने उन्हें दर्शन दिए और उन्हें श्रीराम की भाषा में लिखने की प्रेरणा दी। देश को यह आवश्यकता थी कि स्थानीय भाषा में आम जनमानस को जागरूक किया जाए। फिर संत तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस को अवधी भाषा में लिखना प्रारम्भ किया। काशी के विद्वानों ने इसका विरोध किया। तब वह काशी छोड़कर अयोध्या आए और उन्होंने अयोध्या में ही इस कार्य को पूर्ण किया। अंततः श्रीरामचरितमानस मध्यकाल में देश को जोड़ने का एक सशक्त माध्यम बना। आज भी श्रीरामचरितमानस समाज को जोड़ने का कार्य कर रही है। गांव-गांव में आयोजित होने वाली रामलीला का श्रीगणेश संत तुलसीदास के समय में ही हो चुका था। आज श्री रामचरितमानस हमारे जीवन का हिस्सा बन चुकी है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आध्यात्मिक एवं सामाजिक दृष्टि के साथ ही श्रीरामचरितमानस के माध्यम से आजीविका के भी अनेक साधन बने। अखण्ड रामायण के पाठ से जुड़े हुए कथावाचकों तथा रामलीलाओं के मंचन के माध्यम से भी एक लम्बी परम्परा जुड़ी है। श्रीरामचरितमानस समग्र समाज के निर्माण के लिए एक उपयोगी ग्रंथ है। श्रीरामचरितमानस इसलिए पूज्य है, क्योंकि इसने आध्यात्मिक उन्नयन के साथ-साथ जीवन के चार पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भी अपने साथ जोड़ रखा है। यह कार्य करने की सामथ्र्य स्थानीय भाषा में रचे गए पवित्र ग्रंथांे में ही है, जिन्होंने देश, काल और परिस्थितियों की सीमा को पार कर दिगदिगंत तक इसे गुंजायमान रखा है।
मुख्यमंत्री जी ने कहा कि आज हम नाथपंथ से जुड़ी इस महत्वपूर्ण संगोष्ठी में आए हैं। यह गोरखपुरवासियों का सौभाग्य है कि महायोगी गुरु गोरखनाथ ने लम्बे समय तक इस पावन धरा पर साधना की थी और इसे पवित्र किया। आज भी उनसे जुड़े हुए चिन्ह यहां मौजूद हैं। विश्वविद्यालय का कुलगीत भी इसी परम्परा का एक हिस्सा है। आध्यात्मिक उन्नयन एवं आजीविका एक दूसरे के पूरक बन सकते है, इस पर चर्चा होनी चाहिए। इसकेे लिए हमें आग्रही बनना पड़ेगा। नाथ परम्परा के माध्यम से इस कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए। हमें इस परम्परा में केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक पक्ष को भी रखना चाहिए।
इस परम्परा के बिखरे पड़े चिन्हों को जोड़ेंगे, तो आने वाली पीढ़ी के लिए यह प्रेरणा का माध्यम बनेगा। गुरु गोरक्षनाथ शोध पीठ द्वारा तैयार की जा रही नाथपंथ की इनसाइक्लोपीडिया में देश व दुनिया में इस परम्परा से सम्बन्धित सभी तत्वों को समाहित करना चाहिए। नेपाल, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और तिब्बत के साहित्य में नाथपंथ के बारे में बहुत जानकारी मिल सकती है। नाथ संतों की जीवन पद्धति की जानकारी पुराने मठ और मन्दिरों से खोजकर इसमें शामिल करना चाहिए। इन अंशों की वृत्तिका या फोटोग्राफ तैयार कर एक म्युजियम का रूप देना चाहिए। भारत में उत्तर से दक्षिण तथा पूर्व से पश्चिम तक हर भाषा का साहित्य नाथपंथ के इतिहास से भरा है। इसे एकत्र करके उनकी भाषा के साथ ही हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में भी विश्वकोष बनाया जाना चाहिए। यह हमारे लिए बहुत उपयोगी होगी। इसके माध्यम से हम आने वाली पीढ़ी को इस परम्परा से अवगत करा पाएंगे।
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक के कुलपति प्रो. श्री प्रकाश मणि त्रिपाठी ने संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए कहा कि नाथपंथ सर्वसमाज के कल्याण का चिंतन पुंज है। यह ऐसा पंथ है जो सर्वसमाज के लिए है और सर्वसमाज का है। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ही इसका ध्येय है। मध्य प्रदेश के रेवाखण्ड समेत देश के अनेक राज्यों में विभिन्न स्थानों के नाम गोरखनाथ या गोरखपुर से जुड़े होने का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि नाथपंथ की व्याप्ति पूरे देश में है। यह सर्वाग्रही पंथ है। नाथपंथ का आविर्भाव किसी आंदोलन से नहीं हुआ है, बल्कि इसने खुद अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया है, जिनमें अयोध्या स्थित श्रीराम मंदिर निर्माण का आंदोलन भी प्रमुख रूप से शामिल है।
प्रो0 त्रिपाठी ने कहा कि नाथपंथ में श्रवण और भ्रमण, दोनों ही परम्पराएं समाहित हैं। यह सामाजिक समरसता, त्याग, मानव कल्याण और सर्वकल्याण की भावना से परिपूर्ण पंथ है। कुलपति ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी को मानक मुख्यमंत्री बताते हुए कहा कि देश के अन्य प्रान्तों के लोग भी अपने प्रान्त में योगी आदित्यनाथ जी जैसा मुख्यमंत्री चाहते हैं।
दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो0 पूनम टण्डन ने कहा कि नाथपंथ के मूल में ही सामाजिक समरसता अनुप्राणित है। नाथपंथ के आविर्भावक महायोगी गोरखनाथ जी ने जिस चिंतन पर बल दिया है, वह सामाजिक समरसता, सामाजिक एकता और राष्ट्रीय अखण्डता का है। आज समाज भाषावाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद आदि के कारण खण्डित हो रहा है। समाज में समरसता का भाव न होना राष्ट्रीयता के लिए संकट है। ऐसी परिस्थिति में नाथपंथ के विचार हमारे लिए पथप्रदर्शक हैं। नाथपंथ का दर्शन और विचार हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक धरोहर हैं।
इस अवसर पर विधायकगण श्री विपिन सिंह, श्री महेन्द्र पाल सिंह एवं श्री प्रदीप शुक्ल सहित अन्य जनप्रतिनिधिगण, राज्य महिला आयोग की उपाध्यक्ष सुश्री चारु चैधरी, अपर मुख्य सचिव भाषा तथा हिन्दुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष श्री जितेन्द्र कुमार, प्रमुख सचिव उच्च शिक्षा श्री एम0पी0 अग्रवाल, विद्वतजन तथा छात्र-छात्राएं उपस्थित थे।
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