लघुकथा-लज्जाबोध

 


 


                                                                                                           लेखक

                                                                                                        अतुल मिश्रा

                                                                                              डिप्टी मैनेजर (इफ्को आवंला)

                                                                                                           बरेली

 

              कानपुर से लखनऊ होते हुए आजमगढ़ जाने वाली रोडवेज बस में मैं रामादेवी से सवार हुआ अच्छे वेतन की नई-नई नौकरी करते हुए अभी कुछ - एक वर्ष ही गुजरे थे समाजसेवा मेरी हॉबी थी

               जाजमऊ का गंगापुल पार करते ही बस ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी यात्रियों से भरी बस में केवल पीछे की अंतिम सीट खाली थी उस पर यात्रियों ने अपनी गठरी ,झोले और बड़े आकार के ऐसे सामान रख दिए थे जिन्हें अपने पास रखने में असुविधा हो रही थी प्राय: ऐसा सामान कोई चोर या उठाईगीर नहीं ले जाता

               मेरे आगे की तीन यात्रियों की सीट में दो बलिष्ठ दिखने वाले जवान लड़के लापरवाही से ऐसे फैल कर बैठे थे कि किसी अन्य यात्री ने उनके बीच की सीट लेना मुनासिब न समझा सभी ने कहीं और सीट तलाश ली कुछ देर में उन दोनों ने सिगरेट सुलगाली मैं ‘धूम्रपान निषेध’ की चेतावनी वाली लिखावट की ओर देखने लगा । ‘ इन्हें रोकना कंडक्टर का काम है’ मन में स्वयं बोला लेकिन असल में उन लोगों का तौर- तरीका देखकर मेरी हिम्मत छोटी पड़ गई थी हां अगर उनकी जगह कोई गांव का देहाती बीड़ी पी रहा होता तो मैं उसे जरूर रोक देता मैंने कंडक्टर की ओर देखकर लड़कों की तरफ धीरे से उंगली उठाई कंडक्टर बेचारे ने “.......च्च..” बोलकर अपनी लाचारी सी प्रकट की रोजाना बस में चलने वाले ऐसे उदंड यात्रियों से उलझने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी दोनों युवकों में से लाल टी -शर्ट पहने वाले ने अपने मोबाइल से तेज आवाज में गाना चलाना शुरु कर दिया इस पर भी सभी यात्री व बस कंडक्टर निर्विकार से बने रहे मैं अपनी सीट पर मन मसोस कर बैठा युवकों के ‘लैक ऑफ सिविक सेंस’ के बारे में सोचता रहा

              कंडक्टर ने सभी यात्रियों के टिकट बनाये वह अपने स्थान पर खड़ा होकर बस के सभी यात्रियों की गिनती करने लगा ,फिर कुछ देखने के लिए पीछे की अंतिम सीट पर जा पहुंचा वहां एक सत्रह –अठारह वर्ष का कमजोर सा लड़का गठरियों  के बीच में दुबका हुआ था कंडक्टर ने उसकी कमीज का कॉलर पकड़ कर उठाया

कहां से चढ़े हो ? टिकट दिखाओ  कंडक्टर गरज कर बोला कोई जवाब ना मिला

कहां जाना है ?”

“ लखनऊ तक”  वह बड़ी मुश्किल से बोल सका जाहिर हो चुका था कि वह बिना टिकट के है

प्रथम दृष्टया उस पर चोर या उठाईगीर होने का शक हो रहा था सभी ने अपना- अपना पॉकेट व सामान चेक किया कंडक्टर ने बस रुकवा दी और लड़के को धकियाते हुए गेट से नीचे उतार दिया

वह नीचे से ही रिरियाते हुए बोला –

                                                                  -2-

“साहब! मेरे पास पैसे नहीं है, माँ बलरामपुर अस्पताल में भर्ती है हालत बहुत खराब है मुझे मत उतारो ।”  

बस में चलना है तो किराया दो, बस तुम्हारे बाप की नहीं है

कंडक्टर तैश में बोल रहा था एकबारगी मेरे मन में आया कि उसकी मदद कर दूं ,लेकिन वह गलत व्यक्ति हुआ तो ? और कोई गुल खिला दिया तो...........?

आंखों में आंसू भरे वह अभी भी  बस  का गेट पकड़े याचक की भांति खड़ा था

         अचानक आगे की सीट पर बैठे युवकों में से लाल टी -शर्ट वाले ने आदेशात्मक आवाज में कहा है- “ऐ लड़के ! अंदर आ जाओ”

फिर कंडक्टर को देखकर बोला, “इसका टिकट बना दो” 

और जेब से पांच सौ का नोट निकाल कर उसे थमा दिया कंडक्टर ने लड़के को बस में चढ़ा लिया बस चल पड़ी

       वे युवक फिर से सिगरेट पीने लगे मुझे अपनी जेब में पड़े बटुऐ को छूने में बहुत शर्म महसूस हुई उन युवकों की ओर देखने में अत्यंत लज्जाबोध हो रहा था

 

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?