समाजोत्थान की चिंता करतीं कहानियाँ


साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है। इस आधार पर  कहानियाँ भी समाज का ही प्रतिबिंबन ही हैं अर्थात जैसा समाज होगा कहानियाँ भी वैसी ही होंगी। समाज युगानुरूप होता है। समय परिवर्तन शील है इसलिए समाज भी उसके अनुसार परिवर्तित होता रहता है। जब समाज में  परिवर्तन होगा तो साहित्य भी बदलेगा ही। आधुनिक युग  मशीनी युग है। इसलिए कहानियों में मशीनी उपकरणों को भी जगह मिलना स्वाभाविक है। मशीनी युग होने के कारण उसकी संगति से मानव भी मशीन की तरह संवेदना से रहित हो गया है। मानव का मशीन होना चिंता जनक है। इसलिए साहित्यकार का दायित्व अब पहले से अधिक चुनौती पूर्ण हो गया है। पूर्व में मानवीय मूल्य समाज में स्थित थे। लोग गलत कार्य करने से डरते थे लेकिन आज बिना भय के लोग धड़ल्ले से गलत कार्यों में लिप्त हैं। ऐसी स्थिति में साहित्यकार का चौकन्ना रहना लाजिमी है। 

संजीव कुमार गंगवार ऐसे ही सजग साहित्यकार हैं। इनके अभी तक हिंदी में  30 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं और आयु है अभी केवल 43 वर्ष। लगभग सभी विधाओं में आप अपनी योग्यता सिद्ध कर चुके हैं। कहानी विधा शेष थी तो वह भी प्रकाश में आ गयी। कहानी संग्रह का नाम है - पाती चाचा। पाती चाचा जैसे समय के मारे पात्र हजारों की संख्या में होंगे जो जेलों में सड़ रहे हैं। परिस्थितियों के वशीभूत होकर उनसे अनजाने में ही अपने परिजनों का कत्ल हो जाता है फलस्वरूप उनका पूरा जीवन आत्मग्लानि एवं सजा भुगतने में खत्म हो जाता है। पाती चाचा के पश्चाताप तथा उनकी मनोव्यथा का बहुत ही सटीक चित्रण इस कहानी में हुआ है। शराबी भाई को हल्का सा डंडा मारा वह गलती से सिर में लगा और वह मर गया। पाती चाचा अपने उस भाई को बहुत प्यार करते थे। पश्चाताप की अग्नि में जलते हुए पाती चाचा को जमानत नहीं मिल रही है। जमानत की व्यवस्था में लगा व्यक्ति शायद उतना ईमानदार और सक्रिय  नहीं है, जितना उसे होना चाहिए। दूसरा वकील उससे कहता है - " चाचा इस देश में न्याय बिकता है। बस जेब में पैसा होना चाहिए। अब या तो तुम पैसे खर्च नहीं कर रहे हो या तुम्हारे पैसे सही जगह पर पहुँच नहीं रहे हैं। " कहानी के साथ साथ कहानीकार न्याय व्यवस्था और बिचौलियों की भ्रष्टता पर भी तीखा प्रहार कर रहा है। 

 "मैं जानती थी " कहानी में कल्पना की प्रधानता है। आज भारत और पाकिस्तान के जो संबंध हैं उनसे यह कहानी मेल नहीं खातीं। इसकी घटनायें अविश्वसनीय तथा क्षिप्र गति वाली हैं। मैं जानती थी कहानी की तरह ही  लाल चुनरिया कहानी भी प्रेमपरक कहानी है लेकिन ये यथार्थ के अधिक निकट है। हाउस वाइफ कहानी भी आज के माहौल को बहुत अच्छी तरह से रूपायित करती है। पुरुष के  तथाकथित पौरुष और अहं को चित्रित करती यह कहानी अपने मंतव्य तक आसानी से पहुंच जाती है। मनोरोगी कहानी भौतिकता  और स्वार्थ में लिप्त लोगों को एक अच्छा संदेश देती है। यह कहानी पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है। भोग - विलास  और  ऐसो - आराम में डूबा व्यक्ति कितना अंधा हो जाता है कि उसे अपने  सगे भाई का हिस्सा हड़पने में जरा भी संकोच नहीं होता है। सेलिब्रिटी कहानी में मोबाइल की लत के दुष्परिणामों को दर्शाया गया है। सड़क चलते मोबाइल में मस्त अनेक लोग दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं। ऐसा ही वाकया  इस कहानी के कथानक में सन्निहित है । नये जमाने का दहेज एक आदर्शवादी कहानी है। आत्महत्या कहानी मित्रता की कसौटी पर खरी उतरती है। अपराधी कहानी में ताई का चरित्र उच्चतम अवस्था तक पहुंचा है लेकिन जैसा कि आज अक्सर होता है संतति अपने कर्तव्यों को भूल जाती है। नि: संतान ताई और ताऊ ने मुहल्ले के बच्चों को अपने बच्चों की तरह प्रेम दिया लेकिन वे बड़े होने पर उन्हें भूल गये। आधुनिकता का यह बहुत बड़ा दोष है। आज यूज एंड थ्रो का जमाना है। परिवारों में भी यही हो रहा है। स्वजनों में प्रेम, सद्भाव ,मिलनसारिता एवं परस्पर सहयोग का अभाव होता जा रहा है। अंतिम कहानी का शीर्षक है सच्ची निशानी। यह कहानी भी बड़े - बूढ़े और माता - पिता की उपेक्षा से संबंधित है। माँ  अपने बड़े बेटे तथा बहू से उपेक्षित होकर छोटे बेटे की विदेशी विधवा बहू के पास लंदन चली जाती है। जबकि वह  विवाह के पहले ही गर्भ में उसका बच्चा धारण किये  विधवा हो जाती है। विदेशी होने पर भी स्टैला ने शादी नहीं की वह उसकी अंतिम निशानी बच्चे को सहेज कर लंदन में रह रही है। इस तरह दादी को भी उसकी अंतिम निशानी मिल गयी। लेकिन यह कहानी भी मैं जानती थी की तरह  अस्वाभाविक लगती है क्योंकि इसकी घटनायें बहुत तेजी से घटतीं हैं। माँ के एकदम पीछे बड़े लड़के और पुलिस का लंदन पहुंचना कहानी को अविश्वसनीय बना रहा है। 

इस संग्रह की समस्त  कहानियों को संवेदना के स्तर पर पूर्णतः सफल कहा जा सकता है। पाठक इन्हें पढ़ते समय तरलता का अनुभव करता है। उसकी वह तरलता अनेक बार आंसुओं के रूप पिघल कर बहने लगती है। रोजमर्रा के विषय जिन्हें हम इग्नोर कर जाते हैं, संजीव जी उनमें अपनी कहानी खोज लेते हैं। आदर्श और यथार्थ का ऐसा तानबाना  अन्य कहानीकार भी बुनते हैं लेकिन संजीव जी उसमें संवेदनाओं की अविरल नदी बहा देते हैं। कहानियाँ यद्यपि लम्बी हैं फिर भी उनका प्रवाह पाठक को अपने साथ ले जाने में सक्षम है। 

संग्रह की कहानियों में रिश्तों की गरमाहट भी है और उनमें कहीं कहीं ठंडापन भी है। व्यक्ति की उदासीनता भी है और कर्तव्यों के प्रति तत्परता और समर्पण भी है। कहानियों का अंत आदर्शवाद में होता है। आज के छीजते- टूटते मूल्यों में आदर्शों की स्थापना जरूरी है। कुछ कहानियों में पाठक को सोचने के लिए काफी विस्तृत फलक छोड़ दिया गया है। कहानियों की कहन अलाव पर सुनने वाली कहानियों की तरह है। इन कहानियों में पाठक और श्रोता को बांध लेने की अद्भुत क्षमता है। इनकी रोचकता और जिज्ञासा दोनों ही आकर्षण का केन्द्र विन्दु हैं। कहानियों की विषय वस्तु हम सभी के इर्दगिर्द से ही ली गयी है। उनके पात्रों की समस्याएं हमारी अपनी हैं। पात्र हमारे चिरपरिचित हैं। उनके संवाद सरल, सहज और बोधगम्य हैं। कहानियों का वातावरण उनके कथानक से पूर्णतः मेल खाता है उनके शीर्षक भी सार्थक और कथ्य के अनुकूल हैं। भाषा और शैली आम बोलचाल की है लेकिन जहाँ विषय विज्ञान से संबंधित है तो वहाँ पर भाषा वैज्ञानिक और टेक्निकल भी हो गयी है। फिर भी पारिभाषिक शब्द इतने प्रचलित हैं कि कम पढ़े - लिखे पाठक भी उन शब्दों को आसानी से हृदयंगम कर लेते हैं। इस दृष्टि से सेलिब्रिटी तथा लाल चुनरिया कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। संवेदना की दृष्टि से उसने क्या सोचा होगा कहानी अत्यंत उल्लेखनीय है। केरल की एक घटना पर जिसमें कुछ सिरफिरे लोग एक भूखी और मूक  गर्भवती हथिनी को अनन्नास में बारूद रखकर खिला कर मार डालते हैं। मनुष्य की क्रूरता की पराकाष्ठा पर लिखी यह कहानी पाठक को अंदर तक झकझोर देती है।  इसमें चेखव की कहानियों।की तरह करुणा की अन्तर्धारा बहती है। साधारण लोगों के लिए यह केवल खबर मात्र थी लेकिन कहानीकार ने  इसे कहानी का रूप देकर संवेदना से परिपूर्ण बना दिया है। इससे वह और अधिक अपीलीय हो जाती है। इस कहानी में संजीव की ये दार्शनिक पंक्तियाँ पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देतीं हैं - " क्या हम सिर्फ जी नहीं सकते। क्या सिर्फ अच्छे से जीना ही हमारी दौड़ नहीं बन सकता? यह रंग बिरंगी दुनिया हमें अपनी ओर खींच रही है। हम खिंचते चले जाते हैं। दुनिया के सारे वास्तविक रंगों को भुलाकर और एकदम संवेदनहीन होकर। " इन पंक्तियों से कहानीकार के साहित्यिक उत्स का पता चल जाता है।  उदात्त उत्स की  यही भावना उन्हें अन्य कहानीकारों से भिन्न बनाती है। 

संग्रह की सभी कहानियों के केन्द्र में समाज है। सामाजिक हलचलों से युक्त ये कहानियाँ सामाजिक उत्थान के लिए बेचैन दिखती हैं। सामाजिक कल्याण की भावनाओं से संम्पृक्त ये कहानियाँ समाज और देश के लिए बहुत उपयोगी हैं। संजीव का  पहले संस्करण ही जब इतना पठनीय है तो आगामी संग्रह भी भाव तथा कला की दृष्टि से  निश्चित  ही बहुत प्रौढ़तम रूप में उभरेंगे ऐसा मेरा दृढ़ विशवास है।  

डॉ अवधेश कुमार चंसौलिया 

से नि प्राध्यापक हिंदी ,ग्वालियर - म प्र

पुस्तक का नाम - पाती चाचा 

लेखक - संजीव कुमार गंगवार 

प्रकाशक - गरुड़ प्रकाशन, गुरुग्राम 

संस्करण - 2024 , मूल्य - 299 ₹


इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?