‘मेरे राम, सबके राम’
सदियों से भारतीय जन-मानस में एक नाम, जो सबमें और सर्वत्र व्याप्त है, वह नाम है- राम का। राम महज दो अक्षर के एक औपचारिक नाम ही
नहीं, एक भाव हैं, एक आस्था हैं, एक आदर्श हैं, एक मर्यादा हैं, एक परम् सत्ता और एक सर्वव्यापी, सर्वकालीन शक्ति हैं।
राम केवल वाल्मीकि, तुलसी, दशरथ, जनक, वशिष्ठ, परशुराम, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, सीता, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघन सहित
पारिवारिकजनों के ही नहीं, हनुमान, जामवन्त, अंगद, नल-नील, सुग्रीव एवं जटायु के भी हैं, साथ ही राम मंथरा
के हैं, ताड़का के हैं, शबरी के हैं, बालि के हैं, निषादराज के हैं, रावण, अहिरावण, कुम्भकर्ण, विभीषण एवं
मंदोदरी के हैं तथा राम कुमार विश्वास के साथ-साथ जन-जन के हैं, सबके हैं, मेरे हैं, आपके हैं।
सुख हो-दुःख हो, दिन हो-रात हो, अंधकार हो-प्रकाश हो, हार हो-जीत हो, किरिया हो-कसम हो, जन्म हो-मृत्यु
हो; राम की अंतर्निहितता हर जगह-हर काल में है। वह कण-कण
में भी अंतर्व्याप्त हैं, और अंतर्मन में भी। वह मंदिर-मस्ज़िद-काबा-कैलाश में
भी हैं तो हमारे चित्त और हमारे दिल में भी उनका वास है। हर काल, हर खण्ड और हर युग में उनकी अंतर्व्याप्तता रही है। यह
अंतर्व्याप्तता जन-मानस में कितनी रही है, मैं नहीं कह सकता, लेकिन राम से बढ़कर राम का नाम लोगों के लिए श्रद्धा और
विश्वास का भाव बना हुआ है।
राम हमारे समाज के एक ऐसे महानायक और एक ऐसे महापुरुष
हैं, जो हमेशा अबलों-निबलों के ही साथ खड़े दिखायी दिए हैं।
वे राजाओं-महाराजाओं, सेठ-साहूकारों, वीरों-शक्तिमानों
के साथ नहीं, अपितु दीन-हीनों के साथ ही कंधे से कंधा मिलाकर चले
हैं, उनके साथ खड़े हुए हैं। उनके मन में केवल मानव-प्रेम
की ही वात्सल्यता नहीं, बल्कि उनके मन में जानवरों, पशु-पक्षियों, तथा प्रकृति सभी
के प्रति अगाध प्रेम और स्नेह था।
यह सत्य है कि राम जैसा आदर्शमूलक व्यक्तित्व आज तक
पृथ्वी पर कोई दूसरा न हुआ है, न उसकी कोई
सम्भावना ही है। राम में जिस तरह अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा गुरुजनों
के प्रति आदर-भाव, प्रेम तथा स्नेह था, वैसा और कहीं
देखने को नहीं मिलता। राम ने अपने घर-परिवार, समाज, प्रजा सबके लिए जो आदर्श स्थापित किया था, वह युगों-युगों के बाद आज भी अनुकरणीय है। कह सकते हैं कि
हर रिश्तों, हर नातों की कसौटी पर सदैव खरा उतरने वाला ही उनका
व्यक्तित्व था। आज हम समाज में राम-राज्य जैसी व्यवस्था लाने का तरह-तरह से प्रयास
कर जो दिवास्वप्न देख रहे हैं, लेकिन सच-मुच
क्या हम राम-राज्य की पुनर्स्थापना कर पा रहे हैं, विचारणीय है? लेकिन राम ने तत्समय ऐसी व्यवस्था समाज को दी थी कि बकरी और
शेर एक ही घाट पर पानी पीते थे, जैसा कि हमारे
धर्मग्रन्थ हमें बताते हैं। यानी राम तत्समय के एक साधारण राजा नहीं, असाधारण प्रजापालक थे, जिन्होंने अपने
राज्य और अपनी प्रजा के लिए विपरीत परिस्थितियों में भी ऐसे-ऐसे जन-कल्याणकारी
कार्य किये, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती और जिसकी अपेक्षा एक
साधारण व्यक्ति से तो कदापि नहीं की जा सकती। यानी राम ने एक ऐसे समतामूलक समाज की
प्रतिस्थापना की, जहाँ कोई राग-द्वेष दृष्टिगोचित नहीं होता था। प्रजा
पूरी तरह से सुखी और राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण था।
कहने को राम चक्रवर्ती सम्राट महाराजाधिराज दशरथ के
ज्येष्ठ और सबसे प्रिय पुत्र थे, लेकिन राज-वैभव
का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। कितनी अजीब और विचित्र बात है कि एक राजकुमार, जो राज-प्रसाद में बड़े लाड-प्यार से पला, बढ़ा हो, उसने 14 वर्ष के अपने घोर वनवास की आज्ञा को, कितनी सहजता और विनम्रता से, अपने कुल-वंश की
लाज और परंपरा तथा अपने माता-पिता के वचन के वास्ते, स्वीकार कर लेता
है, बड़ा ही विस्मयकारी है। यह सहजता, विनम्रता युगों बाद भी किसी और में भी दिखी हो, मुझे नहीं जान पड़ता।
रावण, जिसका वैभव, जिसकी वीरता और जिसकी गर्जना पृथ्वी लोक तक में ही नहीं, तीनों लोकों तक में हुंकार भरती थी, जिसकी दहाड़ से इन्द्र जैसे प्रतापी देवता तक थरथराते थे, उस बलशाली और प्रतापी रावण को युद्ध में मात्र अपनी वानरी
सेना तथा अति साधारण शस्त्रों से पराजित करना, आसान नहीं, असम्भव था। लेकिन राम ने अपनी विनम्रता, अपने विवेक एवं अपने रण-कौशल से जो कर दिखाया, वह केवल और केवल ‘राम’ ही कर सकते थे, दूसरा कोई नहीं।
हजारों वर्ष बाद आज भी राम हममें, आपमें वैसे ही समाये हुये हैं, जैसे त्रेता में अपनी प्रजा के दिलों में समाये हुये थे।
यानी राम एक असाधारण मानव थे, जिन्होंने अपनी
न्यायप्रियता से अपनी प्रजा के साथ पूरी तरह से न्याय किया, उनके साथ चले, उनके बीच रहे, उनका सुख-दुःख देखा, समझा, भोगा और उसका समाधान किया।
सचमुच राम का चरित्र इतना विशाल एवं फैलाव लिये हुये
है कि मेरे जैसा साधारण-सा आदमी उन पर क्या लिखे, यह सोचकर ही
असमंजस में पड़ जाता है। लेकिन कुल मिलाकर राम के बारे में केवल इतना ही कहा जा
सकता है कि वे हाड़-मांस के बने एक साधारण नहीं, अपितु एक विशेष
महामानव थे। वे एक साधारण पुरुष नहीं, एक दिव्यात्मा
थे। वे एक साधारण राजा नहीं, असाधारण
प्रजापालक थे। वे एक साधारण योद्धा नहीं, असाधारण
महायोद्धा थे। वे एक प्रजाहितकारी राजा ही नहीं, प्रजा के महान
संरक्षक व उनके पोषक थे। उन्होंने राम-राज्य की महज कल्पना ही नहीं की थी, वरन् वे राम-राज्य के प्रथम प्रवर्तक भी थे।
लोग कहते हैं कि
समय के साथ सब चीजें बदल जाती हैं, यह सच भी है। आज
हजारों वर्षों के बाद देखा जाये तो सजीव-निर्जीव सभी चीजों में कुछ-न-कुछ परिवर्तन
अवश्य आया है, उनका कुछ-न-कुछ क्षरण भी हुआ है। यहां तक कि पहाड़ों
के पत्थर तक घिस गये हैं, नदियों के उद्गम-स्थल तक बदल गये हैं, नदियों की धारायें इधर-उधर भटक गई हैं। मौसम बदल गये हैं।
खान-पान-स्वाद बदल गया है। लोगों के आचार-विचार-व्यवहार बदल गये हैं। रीति-नीति
बदल गई है। लोगों की कद-काठी, रंग-रूप, आकार-प्रकार बदल गये हैं। शिक्षा-दीक्षा-संस्कार बदल गये
हैं। परम्परायें-परिपाटी बदल गई है। यानी हर चीजों में कुछ-न-कुछ आमूल-चूल
परिवर्तन अवश्य ही हुआ है, लेकिन इसके साथ एक बड़ा कटु सत्य यह भी है कि हमारे
राम हजारों वर्ष पूर्व जैसे थे, हमारे राम आज भी
वैसे ही हैं, मुस्कराते हुए, लोगों पर आशीष
न्यौछावर करते हुये। राम कल भी लोगों के सम्बल थे, राम आज भी करोड़ों
लोगों के सम्बल हैं, आधार हैं, आस्था हैं, विश्वास हैं, जो ईश्वर रूप में
सभी भक्तों और श्रद्धालुओं को अपना आशीष, अपना आशीर्वाद और
अपनी अनुकम्पा किसी न किसी रूप में देते अवश्य हैं।
-रतन कुमार श्रीवास्तव ‘रतन’,