हुनर स्टायल के साथ
रजनीकांत वशिष्ठ
नब्बे के दशक में हिंदी के हृदय प्रदेश उत्तरप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता का चेहरा बदल रहा था। उस समय सेे पहले के पत्रकारों के बारे में जो सुना, देखा, समझा वो बस ऐसे था कि-’कबिरा खड़ा बाजार में लिये लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।’ फिर भी गनीमत थी क्योंकि आजादी के पहले और तत्काल बाद का सीन तो कुछ ऐसा था कि संपादक चाहिये का विज्ञापन निकलता था और तनख्वाह जेल की रोटी होती थी। बाहरी चोला सादा जीवन उच्च विचार वाला पर तेवर मिशनरी हुआ करते थे।
उस दौर के पत्रकार का स्वरूप कुछ ऐसा होता था कि धोती कुर्ता या पाजामा कुर्ता या फिर आधा सावन आधा जून यानी कुर्ता पर पतलून। कंधे पर झोला, झोले में मुड़े तुड़े कागजों के पुलिंदे, चेहरे पर डाढ़ी और बिखरे हुए बाल। पैदल या साइकिल से नारायण नारायण करते हुए आम से लेकर खास तक की खबर लेते हुए। कवि राजेश विद्रोही के शब्दों में खींचे गये चित्र जैसा कि -’बहुत महीन है ये अखबार का मुलाजिम भी, खुद अपनी खबर नहीं दूसरों की लिखता है।’
साथ ही पहले का पत्रकार आज की तरह पत्रकारिता डिग्रीधारी तो नहीं होता था न ही आज जैसे पैकेज का जमाना था लेकिन समस्या और कलम पर पकड़ बराबर हुआ करती थी। वो पत्रकार होने के साथ साथ कवि, लेखक, चित्रकार भी होता था। दो समय रोटी खाने भर की पगार में उनकी भाषा की शुद्धता और सटीकता वर्तमान पत्रकारों की पौध से मीलों आगे और मारक हुआ करती थी। देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी लखनउ की राष्ट्रधर्म पत्रिका में इसी दौर से गुजर कर राजनीति के आंगन में प्रवेश किये थे। उस समय देश में पत्रकारिता का विषय आकर्षक नहीं हुआ करता था और उंगलियों पर गिने जा सकने वाले पत्रकारिता संस्थान-जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, या जामिया मिल्लिया, दिल्ली या बीएचयू बनारस में हुआ करते थे।
उसी दौर में 1980 में जब लखनउ विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री पास करके और कुछ समय वकालत में सिर खपा कर जब स्वतंत्र भारत से पत्रकारिता का सफर शुरू किया तो अध्यापकों, चिकित्सकों और आध्यात्मिक चिंतकों के परिवार में पले बढ़े मेरे जैसे मानुस के लिये पत्रकारिता की नितांत अपरिचित दुनिया सामने थी। पत्रकारिता मिशन मोड से प्रोफेशन मोड में आने लगी थी। बात बात पर जेल जाने का खतरा टल गया था। पत्रकारों और उनके लिखे का सम्मान आम ओ खास में दिखने लगा था। नेता और अफसर भी तब आंगन कुटी छवा कर अखबारों में छपी खबरों का संज्ञान लिया करते थे। बछावत वेज बोर्ड ने पत्रकारों को आर्थिक खपच्ची लगा कर खड़ा कर दिया था। संपादकीय विभाग में मालिकों का दखल न के बराबर या बिलकुल नहीं ही हुआ करता था। पर फिर भी न जाने क्यों शादी बियाह के मार्केट में आईएएस, पीसीएस, इंजीनियर, डाक्टर यहां तक कि टीचर के मुकाबले पत्रकार का रेट सबसे कम ही था।
उसी दौर में 1984 के आसपास जब मैं स्वतंत्र भारत अखबार में रिपोर्टर के रूप में तैनात था तब राजनीतिक रिपोर्टिंग के दौरान नवभारत टाइम्स में चीफ रिपोर्टर ज्ञानेन्द्र शर्मा से दरस परस हुआ। सुदर्शन व्यक्तित्व के स्वामी ऐसे कि पहली नजर में पत्रकार से ज्यादा मृदुभाषी अफसर से लगे। मुझ जैसे जूनियर से प्रेम से बात करना, पूछने पर खबर को समझाना, प्रेस कान्फ्रेंस में बुंलदी से सवाल पूछना और कभी प्रेस बाइट मिस कर जाने पर बिना झिझक पूछ लेना, सज धज कर स्टाइल में रहना, खूब हंसना खिलखिलाना, खिलाना पिलाना ये सब कुछ ऐसा था जो आज भी मेरे मानस पटल पर सुखद यादों के रूप में अंकित है।
उस समय एक से एक सीनियर रिपोर्टिंग के मैदान में हुआ करते थे। स्वतंत्र भारत के शिव सिंह सरोज और अनूप श्रीवास्तव, द पायोनियर के बी एल शाह, वी के सुभाष, ओसामा तल्हा, वाशिंगटन पोस्ट के एस एम जाफर, टाइम्स ऑफ इंडिया के श्यामाचरण काला, के के शास्त्री, के विक्रमराव, और आर सी श्रीवास्तव, दैनिक आज के राजनाथ ंिसंह सूर्य और राजेन्द्र द्विवेदी, दैनिक हिंदुस्तान के मदनमोहन बहुगुणा, पीटीआई के ए एन सप्रू और प्रकाश शुक्ला, इंडियन एक्सप्रेस के एस के त्रिपाठी्, पैट्रियट के सलाहउद्दीन उस्मान, एन आई पी के कौसर हुसैन, स्टेट्समैन के हाम्बी बे, यूएनआई के सुदर्शन भाटिया और आर एन द्विवेदी, ब्लिट्ज के बिशन कपूर, माया के अजय कुमार, पंजाब केसरी के गिरधारीलाल पाहवा, विद्यासागर कुछ ऐसे नाम थे जो उसे दौर की रिपोर्टिंग की शान हुआ करते थे।
इन सबके बीच हिंदी पत्रकारों में ज्ञानेन्द्र शर्मा की छवि और लेखनी ने अपनी एक अलग धमक, चमक और हनक बनायी हुई थी। छवि की बात करें तो उपर के सारे टिप टॉप पत्रकारों में एक बार तो उन्हंे सबसे बेल ड्रेस्ड पत्रकार की उपाधि भी साथी पत्रकारों ने दे डाली थी। नवभारत टाइम्स जब लखनउ से शुरू हुआ तो प्रतीक्षा रहती थी कि बेस पैनल में आज ज्ञानेन्द्र जी ने क्या लिख दिया। हर दूसरे तीसरे दिन उनकी बाईलाइन वाली खबर हम जैसे जूनियरों को बेहतर करने की प्रेरणा दिया करती थी। उनकी हर रिपोर्ट में गहराई से की गई रिसर्च के दर्शन हुआ करते थे। विषय चाहे राजनीति हो या फिर कोई और धमाकेदार इंट्रो, तथ्यों से लैस पैडिंग और दिशा सुझाने वाली फिनिशिंग पत्रकारिता के किसी नौनिहाल के सीखने के लिये कम्पलीट पैकेज हुआ करती थी।
कभी सोचा तो नहीं था पर अचानक से बीसवीं सदी के आखिरी दशक के उत्तरार्ध में जब राजनाथ ंिसंह सूर्य के बाद घनश्याम पंकज स्वतंत्र भारत के संपादक हुए तो मालुम हुआ कि ज्ञानेन्द्र शर्मा दैनिक स्वतंत्र भारत के स्थानीय संपादक होकर आ रहे हैं। तब नवभारत टाइम्स हड़ताल का शिकार हो चुका था। यह मेरे लिये बहुत खुशी की बात थी कि मुझे अब पत्रकारिता के ’कैसानोवा’ के साथ काम करने का मौका मिलेगा। उस समय पंकज जी ने मुझे लोकल डेस्क ब्यूरो चीफ बना कर फील्ड से हटा लिया था और ज्ञानेन्द्र जी स्थानीय संपादक होने के नाते फील्ड से अलग हो चुके थे। पर मेरा मन बार बार रिपोर्टिंग को मिस करता था। इसलिये संपादकीय पेज पर या स्वतंत्र भारत मैगजीन ’उपहार’ में नवीन जोशी के आदेश पर लिख कर अपनी बौद्धिक भूख को शांत कर लिया करता था।
एक दिन ज्ञानेन्द्र शर्मा ने मुझे अपने कक्ष में बुलाया और कहा कि मै चाहता हूं कि तुम स्वतंत्र भारत के ओपेड पेज पर पूरे पेज की रिपोर्ट लिखो और तुम हो कि मुलायम सिंह को राजनीति का पहलवान साबित करने वाला लेख लिख रहे हो। दरअसल डेस्क पर आने से पहले मैं समाजवादी पार्टी को कवर किया करता था। ये मेरे मन की बात थी और यह एक अच्छे लीडर की पहचान थी जो आपके मन की बात समझ ले। मैने कहा ठीक है, मैं गोमती नदी के प्रदूषण पर कुछ लिखना चाहता हूं। मुझे याद था कि लखनउ विश्वविद्यालय में पढ़ने के समय 1975 में हम गोमती में तैरने जाया करते थे तब जल एकदम साफ हुआ करता था। पर 1990 आते आते वो जल इतना गंदा हो चुका था कि तैरना तो दूर गोमती का पानी कपड़ा धोने के लायक भी नही रह गया था। राजनीति के बाद पर्यावरण और शिक्षा मेरे पसंदीदा विषयों मंे से थे। ज्ञानेन्द्र जी ने कहा ’गो एहेड’।
उस समय मैने डेस्क से अतिरिक्त समय निकाल कर इस टॉपिक पर तैयारी की और पूरे पेज की सामग्री जुटा कर रिपोर्ट संपादकीय पेज के प्रभारी समाचार संपादक प्रमोद जोशी को दे दी। प्रमोद जी की संपादन क्षमता का सानी नहीं था। उन्होंने पूरी रिपोर्ट संपादित करके उसका शीर्षक दिया ’बूंद बूंद मरती गोमती’। जब यह रिपोर्ट छपी तो ज्ञानेन्द्र जी तो प्रसन्न हुए ही, प्रधान संपादक घनश्याम पंकज जी ने भी इसे सराहा और सरकारी स्तर पर गोमती के प्रदूषण नियंत्रण में ढिलाई के लिये उत्तरप्रदेश जल निगम के तत्कालीन अफसरों पर कार्रवाई के आदेश जारी कर दिये गये। गोमती एक्शन प्लान में चल रहे गुल गपाड़े की खबर जब उस रिपोर्ट के जरिये सामने आयी तो उसमें आर्थिक मदद दे रही ब्रिटेन की ओवरसीज डेवलपेंट अथॉरिटी भी चौकन्नी हो गयी और उसने अपने हाथ खींच लिये।
फिर इसके बाद तो ज्ञानेन्द्र जी ने जैसे मेरे हाथ खोल दिये और समय समय पर विशेष रिपोर्ट या फुल पेज रिपोर्ट तैयार करने की छूट दे दी। ये ज्ञानेन्द्र जी ही थे जिन्होंने पंकज जी को इस बात के लिये संतुष्ट किया कि वशिष्ठ को खेल पेज के डेस्क इंचार्ज के पद से हटा कर इलाहाबाद ब्यूरो प्रमुख के पद पर तैनात किया जाये ताकि वो वहां अचानक प्रदीप भटनागर के पद छोड़ने से पैदा हुई ट्रबल शूट कर सके। उसी साल 1994-95 में इलाहाबाद मंे अर्द्धकुुंभ भी था।
मैं पिताजी की अस्वस्थता के कारण उस समय लखनउ नहीं छोड़ना चाहता था पर ज्ञानेन्द्र जी और पंकज जी का मानना था कि यह मेरे लिये फील्ड में काम करने का सुनहरा अवसर था जिसे मुझे नहीं छोड़ना चाहिये। अनमना सा मैं वहां गया पर आज सोचता हूं कि ज्ञानेन्द्र शर्मा और पंकज जी का मुझे शुक्रगुजार होना चाहिये कि उन्होंने मुझे नया और दुर्लभ अनुभव उपलब्ध कराया। रसातल में जा चुके अखबार का प्रसार इलाहाबाद में बढ़ा तो मेरे आत्मविश्वास को भी पंख लगे।
आज की पत्रकारिता और पत्रकारों को जब देखता हूं तो लगता है मै सौभाग्यशाली हूं कि मुझे वो सुनहरा दौर काम करने के लिये मिला जब युवाओं को संवारने वाले ज्ञानेन्द्र शर्मा जैसेे हाथ मौजूद थे। जो राग द्वेष से उपर रहे और अजात शत्रु भी। मन ही मन उनसे कुछ समकालीन कुढ़ते भले ही रहे हों पर कोई उनका मुखर आलोचक मुझे आज तक नहीं मिला। मैं ही क्या मेरे साथ के पत्रकारों ने भी पत्रकारिता के स्टायलिश और बिंदास ’पोस्टर ब्वाय’ ज्ञानेन्द्र शर्मा के सानिध्य में अपने आपको निखारा था। अपने समय के वो पहले पत्रकार थे जिन्होंने मुलायम ंिसंह के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरप्रदेश के सूचना आयुक्त के पद को सुशोभित किया।
बुंदेलखंड अंचल में झांसी के छोटे से कस्बे मउरानीपुर के ब्राह्मण परिवार से निकले ज्ञानेन्द्र शर्मा ने जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के बाद उपजी समाचार एजेंसी समाचार भारती से पत्रकारिता का जो सफर शुरू किया वो आज उनके जीवन के अमृत महोत्सव तक अनवरत जारी है। मेरी आंखों ने मेरे अपने पत्रकारिता के जीवन में एक से एक वरिष्ठ पत्रकार के दर्शन किये हैं, उनसे उर्जा ग्रहण की है उनमें एक नाम ज्ञानेन्द्र शर्मा का भी है जो उन सबकी तरह ही एक चमकता हुआ सितारा है जो आज भी गरिमा और ठसक के साथ अपनी रोशनी बिखेर रहा है।