च्यवन चरित- एक पौराणिक पुरोधा के अनुपम चरित्र को रेखांकित करता अनूठा महाकाव्य
च्यवन चरित हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार डॉ.सत्यदेव प्रसाद द्विवेदी ‘पथिक’ द्वारा पौराणिक काल के च्यवन ऋषि के चरित्र पर रचित महाकाव्य है। यह इनका तीसरा महाकाव्य है। इसके पूर्ण इनके दो महाकाव्य नामत: ‘भारतीयम्’ और ‘मख क्षेत्रे मनोरमा’ प्रकाशित हो चुकें। अब तक इनकी कुल अठारह कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। डॉ.सत्यदेव एक अनवरत छंद साधक हैं। इसके अतिरिक्त उनका स्वभाव एवं आचार शोधी तथा भ्रमणशील है। इस स्वभाव के कारण वे निरंतर नवीन विषयों पर शोधात्मक सृजन में रत रहते हैं। उनका अद्यतन महाकाव्य ‘च्यवन चरित’ उनके इसी विशेष आचार का साहित्यिक उत्पाद है। जिस पौराणिक ऋषि के सम्बन्ध में अधिकांश लोग एक छोटा सा प्रस्तर भी कठिनाई से लिख पायेंगे उस पर एक महाकाव्य का सृजन डॉ.सत्यदेव के अद्वितीय साहित्यिक कौशल का परिचायक है।
‘च्यवन चरित’ महाकाव्य में कुल त्रयोदश सर्ग हैं। इसका प्रारम्भ मंगलाचरण सर्ग से होता है। इस सर्ग में महाकवि द्वारा ब्रह्म, उनकी आह्लादिनी शक्ति, गणपति, वाणी, गंगा, सरयू, कावेरी, हनुमान, व्यास, वाल्मीकि,पाराशरादि ऋषियों तथा वेद-पुराण-आर्षग्रंथों की वंदना की गयी है। पुरुषोत्तम श्रीराम पर रचित निम्न गंगोदक छन्द विशेष अवलोकनीय है:
“राम आदर्श राजा, पिता पुत्र हैं,
बंधु हैं धर्य औ’ शान्ति का रूप हैं।
शक्ति औ’ शील सौन्दर्य व्यक्तित्व हैं,
उष्णता में भरे नीर के कूप हैं।
त्याग में भोग का क्षेत्र विस्तार है,
सृष्टि में राम तो भूप के भूप हैं।
भाव जैसा धरें रूप वैसा दिखे,
राम छाया कहीं तो कहीं धूप हैं।।”
(छंद संख्या ६०)
द्वितीय सर्ग, परम विख्यात तमसा के माहात्म्य एवं लोकमंगलकारिता से संबद्ध है। इस सर्ग का निम्नांकित प्रथम छन्द जो दुर्मिल सवैया में है, स्वत: ध्यान आकर्षित करता है:
“सरयू दिशि दक्षिण है तमसा,
मिलि औधपुरी छवि छाजत है।
घिरि जंगल मंगल हैं करतीं,
जलवायुन के सुख साजति है।
तट आश्रम सिद्धि तपस्वि बसे,
तप तेज प्रभा सुविराजति है।
सब जीव स्वछन्द हिये विहरें,
जहॅं नंदन की छवि लाजति है।।”
(छंद संख्या १)
तृतीय सर्ग में ऋतु वर्णन के अंतर्गत प्रकृति का मनोरम वर्णन समाविष्ट है। यह सर्ग वर्तमान युग में बहुत प्रासंगिक है क्योंकि इसमें कवि ने पर्यावरण प्रदूषण की ओर संकेत करते हुए उसके निवारण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया है।एक छन्द स्वत: आकर्षित करता है:
“मेघ आकाश में घूमते ढूँढ़ते,
गर्जते पूछते क्या हुई बात है।
प्यास के त्रास में धैर्य को तोड़ते,
नीर संत्रास में ये हुई घात है।
ताल पाताल में नीर का क्या करें,
सूखते से दिखे नेत्र को ज्ञात है।
नीरदाता चले नीर को खोजने,
नीर से ही धरा जिंदगी प्रात है।।”
(छन्द संख्या २)
चतुर्थ सर्ग में महाकवि ने सनातन ऋषि की परम्परा पर प्रकाश डाला है जबकि पंचम सर्ग ऋषियों के प्रदेय को विवेचित करता है। ये दोनों सर्ग आज की नई पीढ़ी के लिए ज्ञानवर्द्धक और उपयोगी हैं। चतुर्थ सर्ग का प्रथम छंद विशेष अवलोकनीय है:
“ऋषियों वाली यह पुण्य धरा,
यम नियम तपस्या तेज वरा।
प्रकृति प्रज्ञता वैभव इनका,
अन्तस का कल्मष निपट जरा।।”
(छन्द संख्या १)
इसी प्रकार सर्ग ५ का अंतिम छंद ऋषियों के प्रदेय का कुशल रेखांकन करता है:
“लोभ औ’ मोह में ना करो कर्म को,
बुद्धि संकीर्ण जो वो कहाॅं जानता।
कींच में पाँव जो एक होता पड़ा,
दूसरे भी पड़े है यही ठानता।
होशियारी नहीं चालबाजी नहीं,
वो छिपा आपमें है सभी जानता।
जो कहे वो करो है इसी में भला,
किन्तु होता हठी वो कहाँ मानता।।”
(छंद संख्या ७०))
आगे के सर्गों में महर्षि च्यवन के जीवनचरित का रोचक एवं रसात्मक वर्णन है।
‘च्यवन ऋषि का जन्म’ शीर्षक षष्ठम सर्ग के निम्नांकित दो छन्द महर्षि के जन्म का आभास कराते हैं:
“सूकर जलकर राख बना तब,
ब्रह्म तेज साकार हुआ जब।
ठहरा कौन तेज के आगे,
तपो तेज साकार हुआ तब।।
(छन्द संख्या २४)
………………………
यही च्यवन ऋषि कहलाये हैं,
मातु पुलोमा सुत जाये हैं।
पूर्व प्रसव ही प्रकट हुए हैं,
तपो तेज में जग छाये हैं।।”
(छन्द संख्या २५)
सप्तम सर्ग में ‘ब्रह्माचरण और तपस्वी जीवन’ शीर्षक से महर्षि च्यवन से सम्बन्धित विशिष्ट तथ्य प्रस्तुत हैं। सर्ग के निम्न छन्द विशेष विचारणीय हैं:
“च्यवन ऋषि की आठ सिद्धियाँ,
तप के बल पर उन्हें मिली थीं।
ऐसी सिद्धि इस धरा पर,
इससे पहले नहीं पली थी।।
(छंद संख्या ४२)
……
प्रथम सिद्धि जो धार दिया था,
अनाहत चक्र पार किया था।
कुण्डलनी जागरण घिया था,
जाग्रत स्वरूप सदा जिया था।।
(छन्द संख्या ४३)
…….
कालचक्र से किया वापसी,
वृद्ध से च्यवन युवा हुए थे।
चन्द्रमा चक्र औ कालचक्र,
निज को सेतु सदृश लिये थे।।
(छन्द स़ख्या ४४)
…….
काया छिपी कृश हुई लेकिन,
नहीं योग में आयी बाधा।
घोर तपस्या किया च्यवन ने,
योग लक्ष्य संयम ने साधा।।
(छन्द संख्या ५५)
च्यवन-सुकन्या नामक अष्टम सर्ग के प्रथम छन्द में वन में सखियों सहित विचरती राजकुमारी सुकन्या के सुरम्य रूप एवं पुलकित मनोदशा का रेखांकन श्लाघनीय है:
“विहरैं वन बीच उलीच हिये,
सब साथ अकाश चढ़े हुए हैं।
मन भाव सुभाव खिले मुख पे,
दृग चंचल चाल चले हुए हैं।
जहॅं चाह भरी वहॅं राह भरी,
पद ज्यों मन पाठ पढ़े हुए हैं।
निज लक्ष्य सुदक्ष प्रवीन लगीं,
सबको मनु काम गढ़े हुए हैं।।”
(छन्द संख्या १)
इस सर्ग का निम्न अंतिम छन्द भी ध्यातव्य है:
“एक दूजे के लिए जो भरा प्रेम हो,
एक से जो दिखे धर्म सौन्दर्य है।
लक्ष्य में भाव कल्याणकारी भरा,
पूज्य की भावना कर्म सौन्दर्य है।।
बात खाँचे ढली रूप साँचे ढली,
योग की साधना तर्क सौन्दर्य है।
साधना साध्य में जो समावेश हो,
क्षेत्र सादृश्य हो शर्त सौन्दर्य है।।”
(छन्द संख्या १५०)
महाकाव्य के नवम सर्ग(च्यवन-शर्याति) में महाराज शर्याति के रथ का वर्णन बड़ा ही प्रभावी बन पड़ा है:
“अश्व जो हैं जुते श्वेत के वर्ण हैं,
प्राप्त आदेश को खड़े कान हैं।
चार संख्या भरी चाल की तीव्रता,
रेशमी साज-सज्जा जड़े शान हैं।
स्पंदनों से जुते भाँप लेते दिशा,
डोर आदेश प्रस्थान संधान हैं।
है रथारूढ़ शर्याति शोभा बढ़ी,
अश्व का यान ये वंश की शान है।।”
(छन्द संख्या १)
इस सर्ग के समापन में कवि ने अपने विशेष गंगोदक छन्द के माध्यम से किया है:
“संग जैसा मिला सोच वैसी बनी,
जान औ’ बूझ के संग साथी चुनो।
कर्म पे ध्यान दो धर्म पे ध्यान दो,
ऑंख को खोल के वृत्तियों को गुनो।
जो बुरे कर्म हैं कष्ट देते सदा,
अंत सत्कर्म की भाव माला बुनो।
त्याग दो त्याज्य है जो सभी के लिए,
है सभी ईश संतान धारा धुनो।।”
(छन्द संख्या ५७)
दशम सर्ग में ‘च्यवन का प्रदेय’ रेखांकित करता प्रथम छन्द विशेष प्रासंगिक है:
“त्याग औ’ तेज से सिद्धि की प्राप्ति थी,
मंत्र की शक्ति पे शस्त्र को भान था।
अग्नि या वारि की बाण वर्षा करे,
शास्त्र की युक्तियों का भरा ज्ञान था।
शस्त्र औ’ शास्त्र में शास्त्र ही श्रेष्ठ था,
शास्त्र में शस्त्र का भी दिशा ध्यान है।
ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त वर्चस्व था,
ज्ञानियों का दिशा बोध में मान था।।”
(छन्द संख्या १)
महाकाव्य का एकादश सर्ग ‘अध्यात्म’ शीर्षक से विशिष्ट आध्यात्मिक तथ्यों की प्रस्तुति करता है।
सर्ग के प्रथम छंद का अवलोकन आवश्यक है:
“यहीं जन्म की भूमि तेजस्वियों की,
यहाँ गंग की धार भी पावनी है।
यहीं ध्यान में ब्रह्म की धारणा की,
बही भाव धारा लगी लावनी है।।
यही विश्व की श्रेष्ठ नैसर्गिकी है,
तथा वृष्टि की धार भी सावनी है।
यहीं श्रेष्ठ वीरों व्रती की धरा है,
यहाँ विश्व सिंहों सजी छावनी है।।”
(छन्द संख्या १)
इस सर्ग का निम्नांकित अंतिम छन्द एक सकारात्मक सामाजिक संदेश का प्रसारण करता है:
“राष्ट्र रागी बनो हेतु त्यागी बनो,
शास्त्र आदेश में राष्ट्र की सर्जना।
राष्ट्र ही मूल हो माथ पे धूल हो,
पावना देश में राष्ट्र की चन्दना।।
भाव में राष्ट्र हो चाव में राष्ट्र हो,
हो मतादेश में राष्ट्र की अर्चना।
राष्ट्र भी देव है सर्वथा सेव है,
वेद संदेश में राष्ट्र की वंदना।।”
(छन्द संख्या ४६)
महाकाव्य का द्वादश सर्ग ‘सत्य सनातन’ शीर्षक से अनेक सनातनी सत्य प्रस्तुत करता है।
सर्ग का निम्नांकित प्रथम छंद देखें:
“ब्रह्म के ध्यान औ’ स्वास्थ्य की दृष्टि से,
योग आयाम ही मुख्य आधार है।
जोड़ को मोड़ना साधना ग्रंथि की,
साॅंस से फेफड़े का खुला द्वार है।।
अंग प्रत्यंग की शक्ति की वर्धनी,
ये क्रिया रूप में देह से प्यार है।
योग से है मिली कौशली दक्षता,
जो करे ज़िन्दगी वर्ष सौ पार है।।”
(छन्द संख्या १)
महाकाव्य के अंतिम सर्ग में ‘उपसंहार’ शीर्षक से बासठ छन्द समाविष्ट हैं। सर्ग का अंतिम छन्द विशेष अवलोकनीय है:
“ज्ञान का यज्ञ है भान का यज्ञ है,
आश विश्वास के मान का यज्ञ है।
खोलता ज्ञान भंडार के द्वार को,
है कृपा भाव जो बुद्धि का अज्ञ है।।
संत माहात्म्य की भाव धारा बही,
बूझता है वही जो धिया तज्ञ है।
ग्रंथ को सौंपता सर्वथा भाव से,
प्राणि जो सच्चिदानंद का प्रज्ञ है।।”
(छन्द संख्या ६२)
‘च्यवन चरित’ काव्यकृति महाकाव्य के सभी लक्षणों से युक्त है। नियोजित सर्गबद्धता के साथ-साथ इसमें महान चरित्र, ऋतु वर्णन, नगरों एवं मंदिरों का वर्णन, राज्य वर्णन, न्याय व्यवस्था, जीवन मूल्यों इत्यादि के वर्णन का सुन्दर समावेश है। इस काव्यकृति में सभी काव्य रसों की अभिव्यक्ति है। शांत रस इसका अंगी रस है। कृति के प्रारम्भ से अंत तक मानवतावादी दृष्टिकोण की प्रधानता है।काव्य गुणों की दृष्टि से इस कृति में प्रसाद, माधुर्य तथा ओज का विनियोग कुशल रूप में हुआ है जो पाठकों और श्रोताओं के लिए आनंददायक है। अलंकार-प्रयोग की दृष्टि से भी यह महाकाव्य बहुत समृद्ध है। इसमें शब्द और अर्थ से सम्बन्धित अनेक अलंकारों का सहज उपयोग हुआ है। कृतिकार को चरित्रों को आदर्श और यथार्थ के उच्च धरातल पर चित्रित करने में पूर्ण सफलता मिली है। कृति में वैविध मात्रिक एवं वर्णिक छंदों का उत्तम प्रयोग हुआ है।सर्वाधिक गंगोदक सवैया का प्रयोग हुआ है पर उसके अतिरिक्त दुर्मिल सवैया, सुंदरी सवैया, मदिरा सवैया आदि का भी कुशल प्रयोग हुआ है।
यह काव्यकृति पुन: इस तथ्य को प्रमाणित करती है कि डॉ.सत्यदेव प्रसाद द्विवेदी ‘पथिक’ जी गंगोदक सवैया के सम्राट हैं।
इस महाकृति की एक विशेषता यह भी है कि इसमें कृतिकार का प्राक्कथन ‘यात्रा वृत्तांत’ के रूप में विद्यमान है जिसका शीर्षक ‘जब च्यवन ने गर्भ से च्युत होकर माता की रक्षा की’ अत्यन्त सहजता से एक पौराणिक सत्य को प्रसारित करता है। इस प्राक्कथन को पढ़कर कृतिकार की नैसर्गिक यायावरी और उनके गहन अध्ययन तथा शोधी प्रवृत्ति का सुबोध होता है। उन्होंने इसमें च्यवन ऋषि को प्राप्त ऐसी आठ सिद्धियों का उल्लेख किया है जो किसी भी अन्य ऋषि को प्राप्त नहीं थीं। इस तथ्य का महाकाव्य में भी सुंदर समावेश हुआ है। उनके द्वारा किया गया तमसा नदी की सुषमा और महिमा का वर्णन श्लाघनीय है। कृतिकार द्वारा इस तथ्य को भी रेखांकित किया गया है कि ‘च्यवन ऋषि सूर्यवंशी राजाओं की न्याय व्यवस्था, धर्माचरण, मर्यादा, प्रजावत्सलता, सत्यप्रियता, वचन बद्धता, समान भागीदारी, स्वास्थ्य के प्रति सजगता आदि को भली भाँति जानते समझते और स्वीकार करते थे। अयोध्याराज के राजकीय वैद्य च्यवन ऋषि के आश्रम में आते थे। जड़ी बूटियों, स्वास्थ्य संबंधी सम्पूर्ण जानकारी च्यवन ऋषि से प्राप्त करते थे। प्रजा भी स्वास्थ्य संबंधी परामर्श लेने और जड़ी-बूटियों को प्राप्त करने आश्रम में आती थी। च्यवन के ज्ञान, अनुभव का राजा सम्मान और उपयोग करते थे। ”
कृति को ‘च्यवन-चरित: एक दृष्टि’ शीर्षक से साहित्य भूषण डॉ.उमाशंकर शुक्ल ‘शितिकंठ द्वारा लिखित प्रस्तावना का प्रसाद भी प्राप्त है। उनके अनुसार ‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति के महान आलोक-स्तम्भ-ऋषि च्यवन जैसे उदात्त व्यक्तित्व पर केंद्रित यह अनुसंधानपूर्ण महत् प्रबन्ध काव्य विविध लोक-मांगलिक स्वरों से उद्भासित है।’
इन महाकृति की भूमिका विद्वान प्रोफेसर डॉ.हरिशंकर मिश्र जी द्वारा लिखी गयी है। डॉ. हरिशंकर के शब्दों में ‘च्यवन ऋषि को आधार मानकर अभी तक इतनी विविधयामी रचना दृष्टिगत नहीं हुई है।’
महाकृति ‘च्यवन चरित’ का आवरण संदेशयुक्त है। उसमें विद्यमान ऋषि की विशिष्ट मुद्रा पौराणिक काल में निहित आध्यात्मिक चिन्तन का बोध कराती है। कृति के अंत में समाविष्ट ‘गणाधार सवैया और उसका व्याकरण’ तथा ‘घनाक्षरी और उसका व्याकरण’ उसके पठन-पाठन को सुगम बनायेगा। कृति का मूल्य रुपया सात सौ पचास मात्र है जो इस महाकृति की गहनता के समतुल्य प्रतीत होता है। यह कृति किसी भी छन्द-प्रेमी और महाकाव्य अनुरागी को सहज रूप से आकर्षित करेगी। इसके अतिरिक्त इसमें छन्दों के प्रति लगाव को उन्नत करने की भी पर्याप्त क्षमता है। निस्संदेह यह कृति डॉ. सत्यदेव प्रसाद द्विवेदी ‘पथिक’ का मानव-समाज को प्रदत्त एक दुर्लभ साहित्यिक उपहार है जिसका सुधी प्रयोग और उपयोग मानवता का पाठ पढ़ाते हुए पौराणिक-काल के कालजयी तत्वों से भिज्ञ बनायेगा।
त्रिवेणी प्रसाद दूबे ‘मनीष’ सेवानिवृत्त वन संरक्षक(भारतीय वन सेवा)
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