अद्भुत योद्धा हरिसिंह नलवा


भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों की मार सर्वप्रथम सिंध और पंजाब को ही झेलनी पड़ी। 1802 में रणजीत सिंह विधिवत महाराजा बन गए। 40 साल के शासन में उन्हें लगातार अफगानों और पठानों से जूझना पड़ा। इसमें मुख्य भूमिका उनके सेनापति हरिसिंह नलवा की रही। 1802 में उन्होंने कसूर के पठान शासक निजामुद्दीन तथा 1803 में झंग के पठानों को हराया। 1807 में मुल्तान के शासक मुजफ्फर खान को हराकर उससे वार्षिक कर लेना शुरू किया।


इस युद्ध के बाद वीरवर हरिसिंह नलवा का नाम पेशावर से काबुल तक मुसलमानों के लिए आतंक का पर्याय बन गया। वहां की माताएं अपने बच्चों को यह कहती थीं कि यदि तू नहीं सोएगा, तो नलवा आ जाएगा। मुल्तान और अटक जीतकर रणजीत सिंह ने पेशावर और रणजीत सिंह ने पेशावर और कश्मीर पर ध्यान दिया। काबुल के वजीर शेर मोहम्मद खान का बेटा अता मोहम्मद कश्मीर में शासन कर रहा था। 1819 में उसे जीतकर पहले दीवान मोतीराम को और फिर 1820 में हरिसिंह नलवा को वहां का सूबेदार बनाया गया। इससे कश्मीर पूरी तरह काबू में आ गया। 1822 में हरिसिंह को अफगानों के गढ़ हजारा का शासक बनाया गया। पठान और अफगानी सेना में प्रशिक्षित सैनिकों के साथ जेहाद के नाम पर एकत्र 'मुल्की सेना' भी रहती थी। 1823 में अटक के पार नोशहरा में दोनों सेनाओं में भारी युद्ध हुआ। 10,000 अफगान सैनिक मारे गए, इधर भी भारी क्षति हुई। अकाली फूला सिंह और हजारों सिख बलिदान हुए, पर जीत हरिसिंह नलवा की हुई। उन्होंने अफगानों का गोला बारूद और तोपें छीन लीं। इससे उनकी धाक काबुल और कन्धार तक जम गयी। उन्होंने वहां का सूबेदार बुध सिंह सन्धावालिया को बना दिया। पर पठान और अफगानों ने संघर्ष जारी रखा। 1826 से 1831 के बीच सिख राज्य के विरुद्ध जेहाद छेड़ने का कार्य मुख्यतः रायबरेली (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले सैयद अहमद खान ने किया। पठान उसे 'सैयद बादशाह' कहते थे। 1827 में 50,000 जेहादी तथा पेशावर के बरकजाई कबीले के 20,000 सैनिकों के साथ उसने हमला किया। पेशावर से 32 किमी दूर पीरपाई में सिखों और जेहादियों के बीच घमासान युद्ध हुआ। बुधसिंह के पास 10,000 सैनिक और 12 तोपें थीं। कुछ ही घंटों में 6,000 मुजाहिदीन मारे गए, अतः उनके पांव उखड़ गए। सैयद अहमद भागकर स्वात की पहाड़ियों में छिप गया। पर यह संघर्ष रुका नहीं।8 मई, 1831 को बालाकोट के युद्ध में मुस्लिम सेना बुरी तरह पराजित हुई। सैयद बादशाह भी मारा गया। सिख सेना का नेतृत्व रणजीत सिंह का बेटा शेरसिंह कर रहा था। नलवा इस समय संपूर्ण पेशावर क्षेत्र के शासक थे।


1837 में काबुल का अमीर मोहम्मद खान एक बड़ी फौज और 40 तोपें लेकर नलवा के किले जमरूद पर चढ़ आया। महीनों तक संघर्ष चलता रहा। हरिसिंह नलवा उन दिनों बुरी तरह बीमार थे, फिर भी 30 अप्रैल, 1837 को वे युद्ध के मैदान में आ गए। उनका नाम सुनते ही अफगानी सेना भागने लगी। उसी समय एक चट्टान के पीछे छिपे कुछ अफगानी सैनिकों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। वे घोड़े से गिर पड़े। इस प्रकार भारत की विजय पताका काबुल, कन्धार और पेशावर तक फहराने वाले वीर ने युद्धभूमि में ही वीर गति प्राप्त की।



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