राष्ट्रीय चेतना के साहित्यकार है डाॅ. रामचन्द्र शुक्ल: डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त


लखनऊ। शनिवार 03 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की जयन्ती की पूर्व संध्या पर संगोष्ठी का आयोजन गूगल मीट के माध्यम से किया गया। ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का रचना संसार’ विषय पर केन्द्रित संगोष्ठी की अध्यक्षता डाॅ. सदानन्दप्रसाद गुप्त, मा. कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान  महोदय द्वारा की गयी। संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में डाॅ. नन्दकिशोर पाण्डेय, पूर्व निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में डाॅ. कुमुद शर्मा, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली उपस्थित रहे। 
 अभ्यागतों का श्रीकांत मिश्रा, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने करते हुए कहा - उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा संचालित साहित्यिक समारोह योजना के अन्तर्गत हिन्दी साहित्य के पुरोधा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की जयन्ती की पूर्व संध्या पर आयोजित संगोष्ठी में पधारे सभी विद्वानों का स्वागत करते हुए अतीव हर्ष का अनुभव हो रहा है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का रचना संसार विषय पर केन्द्रित इस संगोष्ठी में सम्मानीय अतिथि के रूप में पधारे डाॅ0 नन्द किशोर पाण्डेय एवं डाॅ0 कुमुद शर्मा जी का अभिनन्दन करते हुए डाॅ0 सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा0 कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के प्रति भी आभार व्यक्त करना है जिनके मार्गदर्शन में हिन्दी संस्थान उत्तरोतर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। हिन्दी साहित्य का व्यवस्थित इतिहास प्रस्तुत करने वाले मनीषी आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर सारगर्भित व्याख्यानों से हम सभी लाभान्वित होंगे ऐसा मेरा विश्वास है। 
  कोविड-19 के कारण उत्पन्न परिस्थितियों में हिन्दी संस्थान की गतिविधियों को तकनीकी माध्यम से संचालित करने का हमारा प्रयास निश्चित रूप से आप सब को रुचिकर होगा। हम आशा करते हैं कि निकट भविष्य में पुनः पूर्व की भांति कार्यक्रम संचालित कर हम एकत्रित होंगे और समारोह का आनन्द उठा सकेगें। अनन्त शुभकामनाएँ।
हमारे अनुरोध पर सम्मानीय अतिथि के रूप में पधारे डाॅ. नन्दकिशोर पाण्डेय, पूर्व निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा एवं डाॅ. कुमुद शर्मा, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रति हम अत्यंत आभारी है। हमारे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान समूह से जुड़े सभी सहयोगियों का भी स्वागत और अभिनन्दन है।  
मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. नन्दकिशोर पाण्डेय ने कहा - रामचन्द्र शुक्ल रसवादी आचार्य थे। उन्होंने विश्व की कविताओं का मूल्यांकन करने का मार्ग प्रशस्त किया। वे अपनी दृष्टि की बात करते थे। उन्होंने भारतीय दृष्टि को सम्पुष्ट करने के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और उन्हें उद्धृत किया। रसनिरूपण का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया। रस और गुण के सम्बन्ध पर अध्ययन किया। उन्होंने रस सिद्धान्त के माध्यम से भारतीय समीक्षा को स्थापित करने का प्रयास किया। उन्होंने व्यवहारिक और सैद्धांतिक समीक्षा के द्वारा साहित्य को मूल्यांकित किया। शुक्ल जी के अनुसार जीवन का सौंदर्य वैचित्रा्यपूर्ण है। आचार्य शुक्ल विरोधी भावों में साध्य और साधक का सम्बन्ध स्थापित करते हुए सौजन्य की बात करते हैं।
आचार्य शुक्ल ने काव्य की सिद्धावस्था और साधना अवस्था पर लिखा। शील, शक्ति और मुक्ति की बात वे अपनी समीक्षा में करते हैं। शुक्ल जी वस्तुमत्ता और सामग्रता का वर्णन करते हैं। उन्होंने कविता को पढ़ने और समझने की नूतन दृष्टि दी। जायसी उनकी उपलब्धि है। उनके निबन्ध उनकी समीक्षा आलोचना दृष्टि को समझने का साधन है। 
विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित डाॅ. कुमुद शर्मा ने ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का भाषा चिंतन’ विषय पर व्याख्यान देते हुए कहा आचार्य शुक्ल ने हिन्दी को अपना गौरव अपने चरित्रा निर्माण के समय ही समझ लिया था। उनकी शुरू से यह इच्छा रही थी कि वे हिन्दी के लेखक बनें। रामचन्द्र शुक्ल राजा लक्ष्मण सिंह की हिन्दी के साथ खड़े दिखायी देते हैं। ‘हिन्दी शब्दसागर’ के निर्माण में शुक्ल जी का महत्वपूर्ण योगदाना था तो आचार्य शुक्ल के निर्माण में इस ग्रंथ का उल्लेखनीय योगदान है। चिंतामणि भाग-4 में उनका भाषा चिंतन स्पष्ट देखा जा सकता है। उनका भाषा चिंतन आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। हिन्दी उर्दू के प्रसंग में वे सांस्कृत निष्ठ हिन्दी के साथ साहस के साथ खड़े दिखायी देते हैं। हिन्दी की उन्नति के लिए वे सतत सक्रिय दिखायी देती है। हिन्दी का स्वरूप कैसे निखरे इस पर वे स्वस्थ और स्पष्ट निर्देश देते हैं। 
अध्यक्षीय सम्बोधन में डाॅ. सदानन्द प्रसाद गुप्त, मा. कार्यकारी अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने कहा - आचार्य शुक्ल एक ऐसे रचनाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने की आवश्यकता है। वे अपने तिरोधान के 74 वर्षों बाद भी इतने महत्वपूर्ण हैं, जितने अपने समय में थे एक आलोचक होने के लिए आवश्यक हैं। आलोचक होने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति गम्भीर और विस्तृत अध्ययनशील हो, सूक्ष्म अन्वेषण प्रवृत्ति हो तथा  मर्मस्पर्शी प्रज्ञा है। 
शुक्ल जी ने हिन्दी आलोचना को बीज शब्द दिये शुक्ल जी की सैद्धान्तिक आलोचना में रस केन्द्र में है। वे रस को मनोवैज्ञानिक धरातल पर परखते हैं। शुक्ल जी ने पाश्चात्य काव्य सिद्धान्त का बड़ी गहराई से मूल्यांकन किया, उसके साथ संवाद किया। पश्चिमी आलोचना को वे वहीं तक स्वीकार करते हैं जहाँ तक वे भारतीयता के अनुकूल प्रतीत होती है। आचार्य शुक्ल कर्म को प्रधानता देते हैं। उन पर गीता के निष्काम कर्म योग का प्रभाव मानते हैं। उनका हिन्दी साहित्य का इतिहास आज भी मानक है। शुक्ल जी के मनोविकार सम्बन्धी निबन्ध पूर्ण या ‘परफैक्ट’ निबन्ध है। स्वाधीनता आन्दोलन की छाया इन निबन्धों में देखने को मिलते हैं। उन्होंने जीवन जीने के लिए ये निबन्ध लिखे। 
अभ्यागतों का स्वागत श्री श्रीकांन्त मिश्रा, निदेशक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा किया गया तथा संचालन डाॅ. अमिता दुबे, सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने किया। 


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