बुन्देलखण्ड के कुछ व्यंजन

आँवरिया: इसे आंवले की कढ़ी भी लोग कहते हैं। सूखे आंवलों की कलियों को घाी या तेल में भूनकर सिल पर पीसा जाता है। बेसन को पानी में घोलकर किसी बर्तन में चूल्हे पर चढ़ा देते हैं और उसी में आंवलों का यह चूर्ण डाल देते हैं। मिट्टी के बर्तन अर्थात हण्डी में अधिक स्वादिष्ट बनता है। लाल मिर्च, जीरा, प्याज एवं लहसुन आदि सामान्य मसाले पीसकर डाले जाते हैं। मसाले पीसकर डाले जाते हैं। मसाले के इस मिश्रण को तेल या धी में भूनकर बेसन को घोल छौंका जाये तो और अच्छा है। नमक अवश्य डाला जाता है।
हिंगोरा: यह हींग से व्युत्पन्न हुआ है। मटटे के अभाव में बेसन का घोल थोड़ी सी हींग छौंककर पका लेते र्है। साधारण नमक डाल देते है। यह एक प्रकार की मट्ठाविहीन कढ़ी है। यह भी स्वादिष्ट पर भारी होता है।
थोपा: यह शब्द ‘थोपने’, से बना है। बेसन को पानी में घोलकर कड़ाही में हलुवे की तरह पकाते हैं। उसमें नमक, मिर्च, लहसुन, जीरा एवं प्याज काटकर मिला देते है। जब हलुवा की तरह पककर कुछ गाढ़ा हो जाता है, तब जरा-सा तेल छोड़ देते है। पक जाने पर किसी थाली या हुर से पर तेल लगाकर हाथ से थोप देते हैं। बर्फी या हलुवे की तरह थोप दिये जाने पर छोटी-छोटी कतरी बना दी जाती है। इन्हें ऐसा ही खाया जाता है और मट्ठे में भी। मढ्ढे में डालकर रोटी से भी शाक (साग) की तरह खाते हैं। निर्धन परिवारों का यह नाश्ता भी है।
बफौरी: यह शब्द ‘वाष्प’ से बना है। बुन्देली में ‘वाष्प’ को बाफ् और भाफ् (कहीं कहीं पर भापु) कहते है। मिट्टी या धातु के बर्तन में पानी भरकर उसके मंुह पर कोई साफ कपड़ा बांध देते है। उसे आग पर खौलाते हैं। जब वाष्प निकलने लगती हैं, तब उस पर बेसन की पकौड़ियां सेंकते हैं। इन पकौड़ियों को कड़ाही में लहसुन, प्याज, धनियां हल्दी एवं मिर्चीदि मसालों के मिश्रण को घी या तेल में छौंक कर पकाया जाता है। यह भी एक प्रकार का शाक है।
ठोंमर: ज्वार को ओखली में मूसल से कूटकर दलिया बना लेते हैं। फिर इसे धातु या मिट्टी के बर्तन में चूल्हे पर दलिया की तरह मट्ठे में पकाते हैं। थोड़ा सा नमक भी डाल देते है। इसे सादा खाया जाता है। और दूध-गुड़ या दूध शक्कर से भी।
महेरी या महेइ: यह भी ठोंमर की तरह बनती है। ज्वार का दलिया (पत्थर की चक्की से पिसा हुआ) मट्ठे में चुराया (पकाया) जाता है। जरा-सा नमक डाल देते है। यह मिट्टी के बर्तन में अधिक स्वादिष्ट बनती है। इसे भी सादा या दूध मीठे के साथ खाया जाता है। लोधी एवं अहीर जातियों का यह प्रिय भोजन है। जाड़े की रातों में यह अधिक बनायी जाती है और सुबह खायी जाती है। बासी महेरी अधिक स्वादिष्ट हो जाती है। अन्य मौसम में ताजी ही अच्छी रहती है।

फरा: ये दो प्रकार के होते हैं। गेहूं के आटे को मांड़ कर या तो उसकी छोटी-छोटी रस्सियां बना ली जाती है या पूड़िया। फिर इन्हें खौलते हुए पानी में सेंका जाता है। निर्धन में व्रत के दिन पूडियों के स्थान पर इन्ही का व्यवहार किया जाता है। बड़े कानों के लिए यहां ‘फरा जैसे कान की’ उपमा दी जाती है। 
अद्रैनी: आधा गेहूं का आटा एवं आधा या आधे से कम बेसन मिलाकर जो नमकीन पूड़ी बनायी जाती है, उसे अद्रैनी कहते है। यह तेल या घी में बनती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। बड़ी स्वादिष्ट होती है।



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